रूस की चिट्ठी | Roos Ki Chitthi

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Book Image : रूस की चिट्ठी  - Roos Ki Chitthi

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धन्यकुमार जैन 'सुधेश '-Dhanyakumar Jain 'Sudhesh'

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रवीन्द्रनाथ टैगोर - Ravindranath Tagore

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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& खूसकी चिट्ठी: होता है कि मानो अवकाश-भोगी समान यहाँसे सदाके छिए विदा हो गया है। सभी-कोई अपने हाथ-पेरोंसे काम-घंधा करके जिन्दगी वित्ताते दैः वावूगीरीको पाल्शि कीं दै ही नहीं। डा० पेटोव नामक एक सज्ननके धर जनिका काम पड़ा, वे यहाँके एक प्रतिधिति आदमी हैः अचि सोहदेंदार । जिस भकानमे उनका दफ्तर है, वह पहले एक रईसका मकान था, पर घरमे असवा बहुत हौ कम ओर सजाबटकी तो चू तक नही--विना कार्पेटके फरीपर एकं कोनेमे मामूलोसी एक टेविर दै, संकषेपमे पिषटरवियोगमे नाई-घोची-चजित मशोच-दुशाका-सा खूखा-रूखा भाव दे-जैसे चाद्दरवाठके सामने सामाजिकत्ताकों रक्षा करनेकी उनको कोई गरज दही नहीं! मेरे यर्म जो खने-पीनेकी च्यवस्था धी, चह भन्ड-होटठे नामधारी पान्थावासफे छिए बहुत हो असंगत थी । परल्तु इसके लिए कोई संकोच सर्ही--प्योकि सभीकी एक-सी दशा है। मुखे सपने वचपनफी वात याद ठी है। सबकी जीवन- यात्रा जर उसा भायोजन अवकी तुलनमि कितना तुच्छ था; परत्तु उसफे ट्ष हमे किसके मनमे जरा भी संकोच नहीं धा; कारण, तमके संसार-यात्राके आदर्शमे वहतं ऊंच-नोचका भाव नहीं था--सभीके घर एक मामूली-सा चाउ-चलन था-- फरू था सिफ पा्डित्यका, चानी गाने-घजाने आोर लिखने-पटने आदिका 1 इसके सिंचा छोक्रिक रोतिमे पार्थक्य था; सर्थात्, भाषा, भाव-भगा आर साचार-विचारगत विशेपत्व था। परन्तु त्वं




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