व्यंजना और नवीन कविता | Vyanjana Aur Navin Kaviya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ५ ) रि असुरु* वणं उत्पन्न हुमा या अमुक वर्ण न हुआ । यह उत्पाद पं चिनाद्रा अनित्य वस्तुर्शों का ही धर्म है, अत वर्णं अनित्य है । ययपि वर्णो की प्रत्यभिन्ना उनकी एकता का ही समर्थन करती है और एकता नित्यता की, तथापि यदह कोई नियम नहीं है फि प्रत्यमिज्ञा पददले से अनुभ्नत उसी एक ही चम्तु की होती है, वह सजातीय की भी होती ह अर यह सजातीयता एकता के चदले सितता को भी आश्रय देती दह, साय ष्टी नित्यता साधक पक्ता का विनाशन हो जाने से जनिस्यता ज्यो की त्यो स्थिर र्ट जाती है । यद्द सूत्र अपनी स्पष्टता के लिये उदाहरण चाहता टै । 'प्रत्यमिन्ञा” हिंदी में 'पहचान' के अर्थ में ग्याल है । यह इस प्रकार का ज्ञान हैं जिसमें दो प्रकार के ज्ञानों का मिश्रण रदता रवे दो ह -- प्रत्यक्ष एवं स्ति । प्रत्यभि उसी चसु की दोती है जो पहले से अनुभूत होती ६ 1 जय स अनुभूत अर्थं का पुन साक्षात्कार होत्ता ई, तव इसे ज्ञान को प्रत्यभिन्ता कहते है । इस प्रकार वणौ की प्रस्यभिज्ञा का अर्ध यह हुआ कि किसी व्यक्ति ने जिस वर्ण को प्रेमे सुना ह--धघावण प्रत्यक्ष किया है, उसी व्यक्ति को उस वर्णं का संस्कार जंत - करण में चना रददता है ओर जब उसी व्यक्ति को उसी वर्ण का पुन श्रवण शत्यक्ष होता है, तो उसका पुराना सस्कार जगफर स्खृत्ति तो करता ही है, उस स्मृति के साथ तात्कालिक प्रत्यक्ष भी मिल जाता है, आर चह्द चर्ण तय इन दो प्रकार के छ्ञानों भर्थात्‌ प्रत्यमिज्ञा का चिपय कहा जाता है । इस स्थल में शादद-निम्यताचादी का यह कहना ईै कि यदि पुर्वानुभूत कोई शब्दे या -चर्ण अनिव्य हो तो चह तो पूर्वानुभचकालू से ही दो क्षण के बाद चिन्ह जायगा, फिर दो दिन या चार दिन के वाद जिस चर्ण का श्रचण होगा, चट वर्ग चिनष्ट वर्ग से. आकार और उद्यारण में एक होनि परं भ निदचयहो यह भित्र जार पैनी न्धिति में जबकि प्रत्यक्ष का विपय सित्र हो जर स्मृति का भिन्न तो ऐसे उवमरका जो ज्ञान है; यह निव्नय ही प्रत्यमिज्ञानार्मक नहीं हू, प्रत्यभिज्ञान के लिये यद आावय्यक है फि स्मृति एवं मस्यक्ष का विंपय एक ही हो । नत' यदि चर्ण की प्रत्यभिनज्ञा चनानी दि, तो यह वर्णा को निय्य मानने पर ही सिद्ध हो सकता है। तभी कहा था. सडेगा कि जिम उं को मने पट्टे सुना वा; उसे ही श्राज भी सुन रददा हूं । इस प्रइन जन ~~ ~ ~ न्न न्थ कण # 9 क - विवि अं = र-उपना को विनषट' के इनि युद्रनित्यता | सोऽप फ दति दुड़िस्कु साजात्यमचलम्त्रते | मुक्ावली, १६७ वीं फारिपा |




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