न्यायप्रदीप | Nyaaypradeep

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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द तोय अध्याथ 1 ९ औतम कारण हो | उपयुफ्त इग्द्रियादिक अंतिम कारण नहीं हैं, क्योकि इन्द्रियादिक जड़ हैं, इनका नयापार होने पर भी अगर शाब का “यापार न हो तो हम पदार्थकों नहीं जान सकते | जब इंन्द्िय- ब्य|पारना वाद, घाव पैद। होता है, तन नहीं अंतिम वाइसथी, इन्द्रियन्यापार नहीं; इसछिय इग्द्ियन्यापार आदि को गौण या उपनचरित अ्रमण मानना चॉहिये | बार्तविक प्रमाण सन्यन््ान ही हि | उप्रश्न चदि पदयो ज।ननेमे ५५।४। कारण है, तो. नाणी ध नारण कथा है. १ , उ८९--५५।५।, पदयो मी जानत। . है और अपनेकों भी जानता है । जिसप्रकार दीपक, पद/थॉको अकाशित करगे के साथदी अपनों मी प्रकाशित करत। है, अर्थात्‌ दीपकाकों देखने के छिये दूसेर दीपकाकी जरूरत नहीं पढ़ती, उसीप्रकार ५५५) जानने केयि दतर ५५५ की जरूरत नहीं पड़ती, इसीडिये प्रसाण, स्न्परिच्छेंदना था रनन्यनसायात्मना नाहं। गया है | प्रश्न-क्या सभी तरह के शान स्वपरिच्छेदन या. सनन्यनसाथा- स्मन है? या सिफ सम्यानं ही £ उप्र एमी तरह के ज्ञान रपरिच्छेदक हेति हैं, और इस रपर्पारिष्छदकी चषटिसि कोई ज्ञान अध्माण या मिध्याज्ञान चहीं होता | शानमें संचापन या. झूगपर विषय के सचपन या शूठिपन पर निर्भरं है । जेस सांपनें रस्सीका शान, मिंध्याज्ञाच है, क्योंकि १ भावभभयापेक्ष। था अनाणाभासनिल्लन:, बहितजमेयापेक्षायां . प्रमाण तच्चिभं चते, इति देवे।भभे । ^ सान अआमाण्याप्राभाण्ये अपि बदिरर्धा पेक्षयेन न स्वरूपापेक्षया › इति छवी यद्ययाक् याम्‌ ।




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