वैदिक धर्म | Vaidik Dharm

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रज्ञा-दशेन ( छेखक-- श्री ठ. वासुदेवदारण, काशी विश्वविद्यारम ) [ गताइसे भागे ] फिर दिदुरने हंस-साध्य-संवादके रूपमें एक बहुत ही उदात्त प्रवचन छतराष्ट्रके सामने रक्खा। यह चरणयुगके नीति विषयक साहित्यका जगमगाता हुजा भाणिक्य है। इसका जो श यहां है टगमग उन्दीं शब्दों वह शातिपर्वमे भाया है ( शान्ति- २८८।१-४४ ) । वहां इसे गीता का है । स्वयं भग्ययपुरष प्रजापतिकी कल्पना सौ वणै हंसके रूपमे की गई है । उसे दी अन्यत्र दिरिण्यपक्ष झाकुनि कहा है। विश्व प्रतिष्ठ प्रजापतिका सवैत्रगामी रूप है जो सबके हदयमें विद्य- मान है क्र ध्यान करनेसे सभी उसका साक्षात्कार प्राप्त कर सकते है । सत्य, क्षमा, दम, शम, धृति, परज्ञा, तप दनक दवारा ही हृदुयकी म्नन्थिका विमोक्ष संभव हे । प्रज्ञादर्शनमें जो प्राक्ञका उच्चस्थान धा वह कोद नै कस्पना न थी, बल्कि प्ाज्ञको ही वैदिकं युगम धीर कहते ये । उपनिषद्‌ युगमे श्रतज्ञान प्राप्त करके जो उसे कमैमें उतारते थे उन्हें ही कम्रीणिधिपः ' इस परिभाषाके भधारपर धीर कदय जाता था । यह मुल्यवान शब्द उपनिषद्‌ साहित्यमे बार- बार जाता है । यकं मी महिं हंसको ^ श्रुतेव धीरः ' 8] गया हे । उन महर्षियोंकी यह काव्यमयी उदार वाणी थी । वे धर्ममें मस्त भपने भीतर ही देखते थे, बाहर ल्य व्यक्तियोंके दोषों पर श्ट न करते धे । दश्च संबादका निचोड वाणीका संयम हे । मनुष्यको उचित है कि घोर रूखी मर्मच्छिद वाणी कभी न कहे । वह मुखर्में साक्षात्‌ डायन ( निक्राति ) का निवास है । वाक्‌ कंटकोंसे बढकर रक्ष्मीनारशक शौर कुछ नहीं । बोरनेसे न बोरना भच्छा है, यह पला पक्ष हे । उससे सत्य वचन अच्छा है, यह दूसरा पक्ष हे । सत्य कथनमे भी प्रिय कथन, तीसरा विकल्प है और उसमें भी धर्मा~ जुक् वचन अन्तिम हे । सत्यवादी, सदुदान्त उत्तम पुरुष सबका अस्तिभाव चाईता है, किसीका नास्तिभाव नदीं । इतना सुनकर धतराषटने महाछुोके वृत्ति भोर आचारोके विषयमे प्रभ किया । प्रञादशेन सामाजिक गृहस्थधर्मका समर्थक था । समाजकी इकाई कुछ है । अतणएव व्यक्तियोंके उच्च आचार-विचारका प्रत्यक्ष फल कुलोंकी श्रेष्ठताके रूपमें समाजको मिता है । व्यक्ति चले जाते हैं, पर कुल-प्रतिष्ठा पीढ़ी दर पीढ़ी बनी रहती है, अतएव महाकुछ कैसे बनाए जाएं- यह प्रश्न प्रज्ञादशेनमें महत्वपूर्ण स्थान रखता था । यह प्रकरण मनुस्यति ( ३1९३-३०) में भी आया है । ग्राचीन भारतवासी कुलकी प्रतिष्ठा पर बहुत ध्यान देते थे । ऋषियोंकी दृष्टिमें सामाजिक उच्चताका आधार घन नहीं, तप- शर्या, ब्रह्मविद्या, इन्द्रिय निग्रह आदि सांस्कृतिक गुण ही थे जिनसे कुलोंकी प्रतिष्ठा बढती थी । जिन कुलोंमें सदाचारका पालन होता है वे अल्पघन होनेपर भी महाकुछोंमें गिने जाते हैं। (कुल संख्यां च गच्छाति क्षेन्ति च महद्‌ यददाः । उद्योग ३३६ ) यहां कुछ संख्यासे तात्पर्य महाप्रवर कांड या उन गोत्र सूचियोंसे है जो बौघायन, भाइवठायन आदि श्रौतसूत्रोंमें पाइे जाती है। उनमें उस समयके यशस्वी कुछोंके नाम संग्रहीत हैं । जो मद्दाकुछीन है वे ही समाजके भारी दायित्वको सम्भाठते हैं, जैसे सेदनक वृक्ष ( सं स्पन्दन ) की छोटी छकड़ी भी रधमें ठगी हुईं भारी बोझेको सह छेती है । इसी प्रसंगमें एक विछक्षण वाक्य आया है जिसकी तुलनामें रखनेके छिए शतसाइसी संदितामें हमें संभवतः और कुछ कठिनाइस मिलेगा । उस समय यह प्रथा थी कि प्रत्येक कुछ या परिवारकी ओरसे एक प्रतिनिधि जन समितिमें सम्मिठित होता था । उसे कुछ वृद्ध स्थावर या गोत्र कहते थे । कुछकी इकाई ही पौरजनपद संस्थाओंका आधार थी । यहाँ कहा गया है-- न नः स समितिंगच्छेदू यश्च नो निर्वपेत्कषिम्‌ | ( उद्योग ३६३१ अर्थात्‌ हममे जो कृषिके छिए खेतमें बीज नहीं ढाठता वह समिति या सभामें बेठनेका अधिकारी नहीं। विदुरने अच्छे मित्रोंके सम्बन्धमें भी कुछ अच्छी बाते कहीं हैं। जिस मित्रमें पिताके समान झाश्वस्त हुआ जा सके वही मित्र है और सब




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