आनन्दवर्धन | Anandavardhan

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Anandavardhan by डॉ॰ रेयाप्रसाद द्विवेदी - Dr. Reyaprasad Dvivedi

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about डॉ॰ रेयाप्रसाद द्विवेदी - Dr. Reyaprasad Dvivedi

Add Infomation AboutDr. Reyaprasad Dvivedi

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
१० इसी प्रन्य का उपसंहार वाक्य भी उपस्थित करना चाहता ह यह्‌ श्रम ध्वनिरूपो विङवनाय के प्राचीन मन्दिर का पुरोहित है--पुण्डि- राज गणपति 1 संस्कृत-काव्यशास्त्र भारतीय प्रज्ञा या मानवीय सरस्वती का स्मेर, शुचि भौर यान्त श्यद्धार ह । उसकी रचना भी एक से अनेक भौर अनेक से एक तक पहुँचकर थान्त होने वारी विद्व रचना ही है । वह्‌ समस्त अर्थो से गमित नन्द स्फोट' भौर प्रतीयमान के एक वर्‌ अद्टितीय तत्व को पीठिका वनाकर वाच्य भर्थ के दतयुग्म तक पहुंचती भौर अन्त में रस के भरत घन में जा डूवती ही है। वाच्य अर्थ उपमा के ढत से आरम्भ कर रूपक के भध्यारोप और अपहूनुति के भपवाद की सीद्वियों पर चढतै-चदते निगीर्यव्यवसाना अतिगयोक्ति के अद्रैत में पर्यवसित वित्ित किया जाता है घौर प्रतीयमान भी वस्तु तथा अलडार के दत से आरम्भ कर्‌ रस के बैत मेँ । भोजराज के गब्दों में अन्ततः यह सब है गद्द था ध्वनि का ही विवत्तं। भौर इस प्रकार मानों काव्य के ही समान काव्यथास्त्र भी परम गव जगद्धर के णव्दो--हृदय की गोँ -कार ध्वनि है जो अपने गर्भ में समस्त वाइमय को गुम्फित किये हुए है, जो सतत है, अक्षर है, पर टै! आद्यै जगद्धर के ही दयाब्दों में हम इस ध्यनि की उपासना करें-- ओमिति स्फुरदुरस्यनाहतं गर्भगुम्फित-समस्त-वाइमयमु । दन्व्वनीति हदि यत्‌ परं पदं तत्‌ सदक्षरमुपास्महे महः ॥२ रद्न पन्चमी २०२८ वि० कामी हिन्दू विध्वविद्यालय रेवाप्रसाद द्विवेदी वाराणसी 1 ति १. यही पृष्ठ ५४६ पर, २. स्तुतिकुसुना बलि १1६




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now