श्री गोविन्द लीला मृतम् | Shri Govind Leela Mritam

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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{ १२ श्रीगो चिन्दलीलाखतम | पुल्ाभिमधतीभिवेकहर ! विलसन्व्यत्र फुल्ला रसालाः सन्भल्लौभिः शिसीषास्त्विह बरगशणिका-वीथिभिख्ात्र सौपा: । जातीभिः सप्तपर्ण इद च ऊुसुमिताम्लान-पालीभिरस्मिन्‌ लोध्रास्ते वां सपय्यीर्थिन इद एलिनी-श्र णिभिः इन्द मेदाः ।४६॥ खङ्गः कापि दनप्रियः कचिदिमे चार्य धुस्याटकेा दात्यूहैः शिखि-चाठ्कास्त॒त इतो हंसाद्यः सारसः । कीराः कापि किखोक्ुलीरिह भरद्वाजैग् हारौतका रायन्तीव युदत्र वां गुण-यशः प्रमृखा रुम्वत्तः सद्‌ा ॥४५ शासखैका सुकृैयु ता क्िशलयैरन्या प्रसूनैः परा- प्येकस्येह तराहरिद्धिरपरा काचिहलैः पाण्डुरे रव बसन्तादि ऋतशझों में दम्पति-भाव को ग्राम लता व॒बक्षणण की बिशिष्ट शोभा को बर्णन कहते हैं यथा हे औकृप्ण ! इस वुन्दाटवी में विकसित माघवी - लताओं के साथ प्रफुल्लित रसालवन्द, सुन्दर मल्लिकाओओं के साथ शिरीष समूह, यूयिकाओं के साथ कदस्ब समुदाय; जाति - लताश्मीं के साथ सप्रपणे समूद, कुसुमित व अम्लान पाली-(पंक्तियों) के साथ लोघ के चूक तथा फलबती प्रियंगु लताओं के साथ कुन्द- गण मिलित होकर तम दोनों की पूजा के लिये बिशेष शोभा को प्राप्त हो रहें हैं ॥।४६॥। ं इस बृन्दाटवी में किसी स्थान में भौंरों के साथ कोयलों का समूहः, कदं स्वेणं ~ चातक ~ पक्षिया के साथ युड़शुड़, कही डाहुक पक्षियों के साथ मोर व चातकों का झुण्ड. सारस सपु- दाय के साथ शुकभ णी, तथा मरद्वाज पश्चियों के साथ हारोत पश्चीकुत बड़े आनन्द के साथ प्रेम विवश होकर मानों तोश्चाप दोनोंके गुणव यशका ही कठेन कर रहे हैं ।(४५॥




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