जीवन - स्मृतियाँ | Jeevan - Smritiyan

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Jeevan - Smritiyan  by क्षेमचन्द्र 'सुमन'-Kshemchandra 'Suman'

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर १ दीवट पर रेड़ी के तेल का एक दीया टिमटिमा रहा है । दीवार पर रखेश माका तस्वीर और काली मेया का पट लगा हुआ है । पास: ही छिपकली कीड़ों का शिकार करने में मशगूल है । घर मे और कोई सामान नहीं है । फशै पर एक मेली चटाई बिछी हुई है । यहाँ बता रखूँं कि हमारी चाल-ढाल रारीबों-जैसी थी । गाड़ी-घोड़े की कोडे बला नाम-सात्र को ही थी । बाहर कोने की रोर इमली के पेड़ फे नीचे फस के घरमे एक बग्घी और एक बूढ़ा घोड़ा वेधा रहता था ] पहनने के कपड़े निहायत सादे होते थे) वैरमें मोजा लगाने की नौक्त बहुत देर के वाद आई थी । जव त्रजेश्वर के चिट्टे को लॉघकर जल-पान से पाव रोटी श्र केले के पत्ते में लपेटा हुआ मक्खन नसीब हुआ, तो ऐसा लगा, मानो आसमान हाथ की पहुँच के भीतर झा गया हो । पुराने जमाने की बडी आदमीयत को सहज ही मान लेने की ताल्लीस 'चल रही थी । हमारी इस चटादं-विद्धी महफिक्ञ का जो सरदार था, उसका नाम था त्रजेश्वर ! सिर और मूं छों के बाल गंगा-जमुनी, सु ह के ऊपर भूलती हुड सूग्वी भुरियाँ, गम्भीर मिजाज, कड़ा गला, 'चबा-चबाकर बोली हुई बाते । उसके पुराने मालिक लदमीकान्त नासी-गरामी रस थे । वहाँ से उसे उतरना पड़ा था--हमारे-जेसे उपेक्षा मे पते लड़कों की निगरानी के काम में । सुना था, गाँव की पाठशाला मे वह गुरुगीरी का काम कर चुकाथा। वह शृस- आनी चाल ओर बोली उसके पास अन्त तक्‌ बनी रदी । भवाव लोग वैठे है -एेसा न कहकर वह्‌ कदता--“्रतीक्ञा कर रहे है, सुनकर मालिक लोग 'आापस में हँँसा करते । जेसा ही उसका गुमान था, वैसा ही पवित्रता की वाई भी थी। स्नान के समय जन्‌ तालाव में उतरता, तो ऊपर के पानी को, जिसमें तेल उतरतता रहता था, पांच-सात वार ठेलता और फिर धप्र-से




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