श्रीमद्भागवत गीतारहस्य | Shrimadbhagwad Geetarahasya

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Shrimadbhagwad Geetarahasya  by बाल गंगाधर तिलक - Bal Gangadhar Tilak

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अथवा प्रमेयो के भाधार पर गीता में कर्मयोग का यतिपादन किया गया है: और जिनका उलेख कभी कभी बूत ही सित रीति से पाया जाता है, उन श्ान्मीय सिद्धान्तो का पटलेसे ही जान हूए चिना गीता के विवेचन का पूर्णं रहस्य सहसा ध्यान मे नहीं जमता | उसी लि गीता मेज जो विपय अथवा सिद्रान्त आये हैं, उनके गास्पीय रीति से प्रकरणों में विभाग करके प्रमुख प्रमुख युक्तियासहित गीतारहस्य मे उनका पहले सक्षेप मे निरूपण किया गया र; ओर फिर वर्तमान युग की आलोचना- त्मक पद्धति के अनुसार गीता के प्रमुख सिद्धान्तो की तुलना अन्यान्य धर्मों के और तत्वनानो के सिद्रान्तौ के साथ प्रसड्धाबुणार सक्षेप में कर टिखलाई गई है। टस पुम्तक के पूर्वाध मे जो गीतारहस्य नामक निवन्ध है, वह उसी रीति मे कर्मयोग- विपयक एक छोटासा भिन्त स्वतन्त म्रन्व ही कटा जा स्कना ट| जा हो; रस प्रकार कैः सामान्य निरूपण म॒ गीता के प्रत्येक शोक का पर्णं विचार हो नही सक्ता भा। अत्तएव अन्त म गीता के प्रत्येक “ठोक का अनुवाद टे दिया है; और इसी के साथ स्थान-स्थान पर ययेप्र टिप्पणियाँ भी दसलिये जोट दी गई हे, कि जिसमें एवॉपर सन्दर्भ पाठकों की समझ मे मल मेति आ जाय, अथवा पुराने टीकाकारा में अपन सम्प्रदाय की सिद्धि के लिये गीता के “छोको की जा खीत्वातानी की है, उसे पाठक संमस जायें ( देखो गीता ३. २७-१९; ६. 3; और २८. २); या वे सिद्ान्त सहज ही ज्ञात हो जाय, कि जो गीतारहस्त में बतलाये गये ह। और यह भी नात हो जाय, कि इनमें से कौन कौन-से सिद्धान्त भीता की सवादात्मक प्रणाली के अनुसार कहाँ कटा किस प्रकार आये है * इसमे सम्देह नहीं, कि ऐसा करने से कुछ विचारों की द्िवक्ति अवद्य हो गई है। परन्ठ गीतारटस्य का विवेचन गीता के अनुवाद से प्रथक्‌ इसलिये रखना पडा है, कि गीताग्रन्थ के तात्पर्य के विपय में साधारण पाठकों में जो अभ फेल गया है, वह भ्रम अन्य रीति से पृणतया दूर नही हो सकता था | दम पठति से पूर्व इतिहास ओर आधारसरित यह ण्खिलाने मे सुविधा हो गई है, कि बेदान्त, मीमासा ओर भक्ति प्रभृति विप्रयकं गीता के सिद्धान्त भारत, सारत्यगास्व, वेदान्तदभ, उपनिपद्‌ और मीमासा आदि मूठ अ्रन्थो में कैसे और कहां आये हे ? दसम सषटतया यह बतलाना सुगम हो गया हैं, कि सन्यासमार्ग सर कर्मयोगमाग में क्या ने ६। तथा अन्यान्य धर्ममता ओर तस्वनानौा के साथ गीता की ठल्ना करके व्यावहारिक कर्मचष्टि से गीता के महत्त्व का योग्य निरुपण करना सरल हो गया ह्‌! य गीता पर अनेक प्रकार की टीका न हिली गरं होती ओर अनेदो मै अनेक प्रकार से गीता के तात्पर्यां का प्रतिपादन न किया होता, तो हम अपने मन्थ के सिद्धान्त के लिये पोषक और आधारभूत मूल सस्कृतं वचना के अवतरण शान स्वान प्य्‌ ठनेकी कोर आवच्यक्ताहीन थी] किना यह्‌ नमय दृसरयाहं समार सन से चर गाल जा सक्ती थी, कि हमने जो गीतार्थं अश्वा निन्त सतलया हः वट र ग अक 9 केने है या नहीं * इसी लिये हमने सर्वत्र स्थलनिवेश रर घ्तला ब्या ₹, कि हमारे स्थन गी. र. २५




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