जय पराजय | Jay Parajaya

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Jay Parajaya by ब्रजमोहन - Brajmohan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कर रहा था । जब उसकी माँ ने एक तशतरी में थोड़ी सी मिठाई श्र पाँच यपये उसके सामने रखते हुए कश “जरा जल्दी कनक के यहाँ दे आरा, उसको माँजी से कहना कि टीके के हैं,” तो उसे ऐसा लगा मानो स्वप्र देखते देखते सदसा ग्रसं खुल गई हों । जव वह घर के द्वार ही पर खड़ा-खड़ा तशतरी तथा रुपये देकर कनक की माजी कै प्रश्नों के उत्तर दे रहा था, तो उससे देखा, सामने वाले वंदे कमरे क द्वार पर कनक खड़ी है, लाल साड़ी, जम्फर तथा दनो से खजी कमक की वह छया उसके हृदय-पटल पर श्ङ्धितदहो गई । उसे ऐसा लगा मानों उसके उन दो चढड़े-वंड़े नेत्रों में उससे दो उज्ज्वल मोती ढुलक कर कपोलों पर श्रा जाने के लिए प्रयलशील देखे हैं और उसका झपना दम, मोह, ्रस्तित्व ही उनम घुल करन जाने कहाँ वह गया है । जव वद कनक के यहाँ से लौट रद था तो जीवन के प्रत्ति एक प्रकार की उपेक्षा श्रौर उदासी का भाव उसके हृदय में गहरा समाता जा रहा था | उसका विवाह कराने का इरादा नहीं था । पिता के झ्ा्रह की चिन्ता उसमे नहीं की, किन्दु माता के याँसुद्ों के सम्मुख उसकी हः टिकनस्की। ग्रवहीतोरेसी चीर, जिनके श्रागो कमी पराजय- स्वीकार न करने वाले व्यक्तियों को भी घुटने टेक देने पड़े हैं श्रौर फिर जननी के रास १ श्रपने जीवन के ग्रति उपेक्षा का भाव लिए फिरने वाला सतीश इन थोड़े से जलकणों के लिए उपेक्षा कर्दमे लाए £ उसने विवाह के लिए श्ननुमति देदी, किन्त भावी पत्नी को देखसे जाने के लिए कहे जाने पर उसने इंकार कर दिया | दया ~ ८-00-८ व




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