सूक्ति सुधारम | Sukti Sudhaaram

Sukti Sudhaaram by डॉ प्रियदर्शना श्री - Dr. Priyadarshana Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जिनशासन में स्वाध्याय का महत्व सर्वाधिक है । जैसे देह प्राणों पर आधारित है वैसे ही जिनशासन स्वाध्याय पर । आचार-प्रधान ग्रन्थों में साधु के लिए पन्द्रह घे स्वाध्याय का विधान है । निद्रा, आहार, विहार एवं निहार का जो समय है वह भी स्वाध्याय की व्यवस्था को सुरक्षित रखने के लिए है अर्थात्‌ जीवन पूर्णं रूप से स्वाध्यायमय ही होना चाहिए एेसा जिनशासन का उद्धोष है । वाचना, पृच्छना, परवर्तना, अनुपरेक्षा ओर धर्मकथा इन पाँच प्रभर्दो से स्वाध्याय के स्वरूप को दर्शाया गया है, इनका क्रम व्यवस्थित एवं व्यावहारिक है । श्रमण जीवन एवं स्वाध्याय ये दोनों -दूध मे शक्कर की मीस के समान एकमेक हैँ । वास्तविक श्रमण का जीवन स्वाध्यायमय ही होता हे । क्षमाश्रमण का अर्थ है “क्षमा के लिए श्रम रत' और क्षमा की उपलब्धि स्वाध्यायसे ही प्राप्त होती है । स्वाध्याय हीन श्रमण क्षमाश्रमण हो ही नहीं सकता । श्रमण वर्गं आज स्वाध्याय रत हैं और उसके प्रतिफल रूप में अनेक साधु-साध्वी आगमज्ञ बने हैं । प्रात:स्मरणीय विश्व पूज्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा ने अभिधान राजेन्द्र कोष के सप्त भार्गो का निर्माण कर स्वाध्याय का सुफल विश्व को भेंट किया है । उन सात भागो का मनन चिन्तन कर विदुषी साध्वीरतनाश्री महाप्रभाश्रीजीम. की विनयरत्ना साध्वीजी श्री डे. प्रियदर्शनाश्रीजी एवं डॉ. श्री सुदर्शनाश्रीजी ने ` “ अभिधान राजेन्द्र कोष मे, सुक्ति-सुधारस को सात खण्डं में निमित किया ह जो आगमों के अनेक रहस्य के मर्म से ओतप्रोत हैँ । साध्वी हय सतत स्वाध्याय मग्ना है, इन्दं अध्ययन एवं अध्यापन का इतना रस है कि कभी-कभी आहार की भी आवश्यकता नहीं रहती । अध्ययन- अध्यापन का रस ऐसा है कि जो आहार के रस की भी पूरति कर देता है। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस ७» खण्ड-3 ७ 9




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