द्वैत - वेदान्त का तात्विक अनुशीलन | Dvait Vedant Ka Tatvik Anushilan

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Dvait Vedant Ka Tatvik Anushilan by कृष्णकान्तः चतुर्वेदी - Krishnakant Chaturvedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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॥ वस्तु का रग 1 इनवा वेस्तु के साय भेदाभेद सम्बय दोता दै! जदतक गुण बस्तु मे रहता है तब तर मभेद भौर नष्ट हो जारे पर मेद 1 रामानुज द्रप मणम अपृयन्‌ सिद्ध सम्दप मानस हैं । भथ्द वा तादात्म्य सिद्धात भी उनकी मौलिव देन है । द्रव्य और गुण अभिन हैं पित व्यवहार मे जो उनमे भेद प्रदीत होना है बहू विशप के फारण ही होता है। भेद के अमाव मे भी मेरे के सिवाहुक पटाथ को वियोप कहते हैं। सब सिद्धात सार मे इसे परिभाधिन किया है न मेलपविऽदि भेद व्यवहार निर्वाटरा अन ता एव दिवेषा । विनोप पटाथनिप्ठ हैं जोर बनवा हैं। व स्व निर्वाह हैं। नव लिये साचारे विनेषप थी जावत्यवता नहीं १ इसीलिय अदस्या दाप नहीं होता । अभेद ही दुंददर की उत्पादन एव सहारक शकिता कै वोच सापरजम्य बनाये रखता है । सर्प वे सम्बद्ध ये भी मध्य और शक्रम मेदहै! करसवंदेणसालसे संम्ययत वस्तु को सन्‌ मानत हैं विततु मध्व क्ख्वितू काल थर देगा से सर्म्बी पते की नी । उतके सते से रउज़ मे प्रतीयश्यन सप घमत्‌ है क्योंति वह बभी और कहां भी दनवाज में सर्म्या घत नहीं है। चत्ति दोप दे वारण ही उनकी प्रतीति सदुवन्‌ होनी है + असत्‌ मे सत्‌ ग्रहण बरना ही भ्रम है ! स्सतिय स्वप्त भी सत्य है । जय जाग्रत अवस्था में परार्थों से उसकी तुलना की जाती है तभी वह मिथ्या होता है) सव पदाथ मे बायपारिते। का होना भी लाद्इयव है। आरोपित रजत से पाधादि को निमाप सम्भव नहीं । बत वह अमन है । मध्य बे मत में अडियां एव बरसों दूर संयोग ही सीव ने वघन का वारण है 1 जीद वदिदावनान्‌ पनृ ल्व को अते उपर जारोपित कर लेता है। यदी उरी वदता पा प्रमुख बार है । स्टूय थी सता एस क्त बे ताकदे स्पमर्रन्वरफा अपरोग अनुभव बर नैना ही सोस है । अडिया ही जोद एवं ईगवर के स्वस्प व माच्ठादन करती है । वह सन्‌ पदाथ है । अत जड़ बस्तुओ को समार और जनित्य मानकर उनके प्रति विरवित साधना की प्रारम्मिर अवस्था में अतिवाय है 1 +तष भति वा साहाप्य बर्पा रत है 1 रामानुज वे समान मप्व भी मुक्ति का केवल माव नानो वर प्रयाहमाद नहीं मानते दे। द उससे नानकोभो समादिष्ट वस्ते #1 महिन का पयवसान इंगवर के प्रथा भान से होता है । पृ प्रग सहन से यहा गया है --णान साधनर्पादू्ति . करणदेनोर्पत ज्ञानादेदापर्स --नारायण प्रसाद सुने न मोदर ' । मप्द के अनुसार यूवुनायरया से दी जीव ढलु परिमारायुवन रहता है और उमा सय बा मे नहीं होता 1 यहू दुसा वो सय से रहित एवं पूण जानद मी अवाया हैं | इस अदस्या से जीव उने सब भोगा वो प्राप्त करता है, जो परमात्मा




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