महादेवी का काव्य - वैभव | Mahadevi Ka Kavya Vaibhav

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Mahadevi Ka Kavya Vaibhav by रमेश चन्द्र गुप्त - Ramesh Chandra Gupt

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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महादेवी की कान्य दृष्टि १३ प्रति सदभावनायुक्त कदित्ता मे यशन्दान की क्षमता अनिवायत अत्तर्निहित रहती है, अत यकषनलाम को मुख्य मानकर समाज के प्रति दाधित्व निवाह ने करना साहियवार वे अविवेव वा सुचक है ' यश के प्रति कवि के प्रलोभन का विरोध करन के अतिरिक्त उ हनि क्वि के लिए अथ-तप्णा से मुतरित भी जावन्यक् मानौ है । यथा-- (श्र) “यदि साहित्य को झाजीदिका को दप्टि से स्वीकृत कोई एक व्यापार भान लिमा जाप, तो न व्यक्ति को प्रतिमा विदेष के लिए मुक्त क्षितिज मिल सकता है श्रौर न उक्त कम से उसके श्रविच्छिन लगाव को उचित कहा जा सक्ता ह ^ (श्ना) “क्वि श्रषनो श्नोता-मण्डलो मे किनि गुणो को भ्रनिवाय समभता है, यह भ्रदन भ्राज महो उठता, पर श्रय फो किस सीमा पर यह श्रषने सिद्धातोका वोभः एंककर नाच उठेगा इसका उत्तर सब जानते हैं । उसी इच्छा भ्रय के क्षेत्र में जितनी सुषत है वह श्रोताप्रो की इच्छा का उतना हो अधिक बदी है।”* काव्य के तत्व १ श्रनुभूति भ्रयथा लोक सत्य - महादेवी ने अनुभूति चित्रण अथवा जीवन सत्य की अभि यविति षौ कविका मूल वम माना है शन्तु मनुमव का विचार सम्पा ओर कंस्पनासील मनोवत्ति स समद्ध रखने का मा वे समयन करती है 1 सवेदनदोलता अथवा भावृक्ता को उनि भ।यकाञअतस्पदन मानाहि जो श्रनुमृति वा हो पर्याय हैं- “कवि का निरोक्षण उसके सवेदन कः परक है, श्रत प्रत्येक दाब्दचिन मे श्राकृतति को रेखपएुं ययातथ्य शरोर श्र त स्प दन सत्य रहता है 1“ अनुमव सिद्धि ॐ लिए क्वि जव लोक हदय का साक्षाप्कार करता है तव उसके समभ विनेपताओं के साथ-साथ विष्ृतिया भी माती ह । महान्वौ ने क्वि का गुण इस बातमे माना है कि वह सामाजिक विपमताओ स म तकित न होकर सहदय-दप्टि अयवा बरणा को अपना कर विशेषतो का यथास्थान अभिषेक करे-- “समघ्टिभते विपमता श्रौर घिकतियों के बीच मी -यवितगत विशेषताम्नो के लिए कवि को करुणा का श्रमिपेक दुलभ नहीं रहता ॥* यदौ व्यवितगत विशेषताओ८ को खोज का अथ यह वेदी है कि व्यापक मानवता वो व्यक्तिवद्ध कर लिया जाये, अपितु महादेवी जी का अभिप्राय यह है कि समाज सापेक्ष अध्ययन विन्दुओ को एकान्तत व्यक्ति निरपेस नहीं होना चाहिए । दूसरे धदो में कवि सामाजितों ने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर समष्टि के सत्य को खोजा वा प्रयास करता है। इसी गुण के बल पर व्िता व्यक्ति सीमित न रह कर मानव मात्र क लिए कल्याणकारी सिद्ध होती है--” कविता हमारे ध्यष्टि्सीमित १ घणदा षष्ठ १२१ २ स्टूति की रेखाणे पष्ठ शहद ३ सप्तपणौ अपनी वात पष्ठ ५७ ४ सप्तपर्ण, पनी बात, पृष्ठ ६१




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