विवेकानन्दजी के संग में | Vivekanandji Ke Sang Me (vartalap)

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Vivekanandji Ke Sang Me (vartalap) by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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थो ब्रह्म बनाना--अरतार तस्व--आमज्ञान प्राप्त करने मे उताहं देना--भत्मन पष्य का कमै जगत्त के टिके किए होता है । ३०६ परिच्छेद ३३ स्थान-देटड मठ ) वप-१९०१ ईस्वी 1 विपय-- स्वामीज्ञा का कलकत्ता जुविठी आई एफडेमी के अध्यापक शी रण्दाप्रमाद दासगुप्त के साथ शिप के सम्बन्ध में घार्ताणाप नाक्रतिम पदायो में मन के भाव प्रकट करना हो शिव्य का लक्ष्य होना चाहिए--भारत के बौ डयुग का शिल्प उक्त विपय में जगत मे संवेध्रष्ठ है--पोरोप्रापी यी सदायता प्राप्त बरवें युरोपीय शिल्प थी भाव प्रकाश सम्बन्वी अवनति--भिन्न भित जाटीय दिन्प में विशेषता है--जडवादी यूरोप और आप्यापिक भारत के शिल्प में क्या विशपता है--दतमान भारत में शित्प की अदनति--देश में सभी विद्या व भावों में प्राण का संचार करने के लिए श्रीरामइण्ण देव का आगमन 1 ३१० परिच्छद्‌ ३९ स्यान-येदुद मढ़ ? वप--१९०९ । विपय--स््ामीर्ती कौ देहर श्रीरामरप्णदेवकीदक्तिका सचार--पूव वग वी बात--नाग मददाशय के मकान पर आतिथ्य स्वीकार--भाचार व निष् को आवदयकता--वाम-वाचन के प्रति आसक्ति त्याग देने से जाएमद्शन 1 ध) पवन ५ परिच्छेद ३५ स्यान-बेलट मठ । वप-१९०१ ईस 1 १२




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