व्याकरणमहाभाष्यम | viyakaranmahabhashayam

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viyakaranmahabhashayam  by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अ. १ पा. १ भा, ५ तू. ११] व्याकरणमहामाप्यम १५९ ही आचन्तवद्भाषके वदे कदा जय रेल कहा है, और *इ” धातुझो एकाचूरूपसे दिख हो, हु मत्ययक्ों पत्ययके अश्यवके रूपे पत्च दो इस प्रकारके उपयोग दिखाये हैं। तदनस्तर लोफमें ये बातें अनुभव आनेसे व्यपंदृशिवद्मावका सहेतुक विधान करनेकी आवश्यकता नहीं है ऐसा भी वार्तिककारने बनाया है ; ओर माप्यकारने एक ही पुम हो सो उर्सीको ज्येष्ठ पुन कहा जाय वेसे ही एक ही वर्ण प्रस्तुत हो सो भी यदि बढ सुबन्त ह तो उसीको पढ़ कहते हैं यह उदाइरण स्पर्शफरणके लिए दिया हैं । फिर जिकफे परं कुठ नदीं वह * आदि” है, और जितने आगे ठ नदीं वह ' अन्त? है इस प्रकारकी ८ यादि? ओर ८ अन्त ? डाव्दोकी परिभाषा करके इस सूचकी आवश्यकता नहीं यह भी वार्तिककारने कहा है। परन्तु भाप्यकारने यहाँ ' गोनदीय कदता दै” इस पकारकों उदेव करके * अन्य कोई तत्सद्वरा होनेपर दी आरंमका और अन्तका ये झब्दू उपयोगमें लाये जाते दें इस गोनदीथिके मनके सूपमें स्वमत स्प्नया कदकर प्रस्तुत सूती आवश्यकताफा पतिपादन डिया दै। अन्तमें, वार्तिककारने इस सूचके प्रयोगन बताये हैं, ओर भाष्यकरापने प्रातिपदिक, प्रत्यय अथग धातु एकवर्थात्मक होने हुए भी उप्ीको साद़ि अथवा अन्त समझकर जदाँ कार्य दो चुके हैं इस प्रकारके उदादरण भी दिये हैं । घ-संता, संख्यासंज्ञा ओर निष्रा-तं्ञा्ओंका विवे चन---५ तपप्तमपो घः» (सू. २२) सूतम तरप्‌ ओर तमप्‌ प्रत्ययोशो धस्त कही है। यह संशा भी मर्चान बैयाकरणोंकी दी येगी । यदा वातिककारमे भतिपाद्न निपा क्रि इत्‌ वर्णश्‌ दगा उच्चारण किया जानिके कारण ८ तर्‌ ? ड्द यष्ट पाणितिन्न ण्डा ह्या तष्प्‌ भ्रत्यय टिया जाय) ° नदीतर आदि स्पा ^ तदृ शब्द न टिया जाप] तदुनन्तर ( स्‌. २३-२६ ) संस्यासंशा और संस्यासंज्ञाका दी एक प्रकार पट्संता इनका व्विरण चालू किया है । * कूविमाइ तिमयो: इपिमे कार्यक्प्रत्यय: * स्यायमे बढ़, गण इत्यादि शब्दको शी कष हुई इचरिम “ संर्या” संज्ञा ही यमतः ध्यानमें आयिगी और एक, हि, सि इन स्वाभाविक संह्पावाचक दच्दीकों * संएया ? संज्ञा न होगी इस लिए सूपभे और पक सस्या? शब्द्‌ रतना आर्य है यदद वारतिइकारका विधान है । उसकी माप्यकाने उत्तर दिया है और कद्दा दे कि संदर्भ वा त्रिशिष्ट उपयोग नहो मनम होना ह यही कृचिम हा प्ले ध्यानमें आनी दै और अन्य स्थलोंमे स्वाभाविक अर्थ ही पहले ध्यानमे आता है, अतः यों दोनों पारी सेस्याएँ ध्यानमें आ सकती दें । ओर * संख्या” एक बढ़ी संज्ञा दी जानेके कारण बढ अन्वर्धक ली जाय य६ भी अभियाय अपने दिधानके समर्पनार्थ माध्यफारने व्यक्त छिंया दे । इसके धाद “सप्यर् !, अर्पपर् *, वआपि रू इास्दोंडो मी सस्या कहा गया हो यन्यय सूम मे शद्‌ रली आयदयक्ना नहीं दै, तथा बहु आि शम्दू भी मस्तुन सुनें न रखें गये होने तो भी काम अल सऊता था, शापरूम ही उनडी संख्या” संहा सिंद् होगी है, यह भी यहीं भाष्यद्वान वाया है। ' प्यान्ता पट दिए २४ सुब्रनें उपदेशमें बरारान्त और नदझारास्त हंस्या लेना यदि इषट हो तो भी * उपें शेम्द सुययें रखनेरी आवश्यकता नहीं, संनियत परिमिताते और * अशनों दीपत्‌ *




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