सुजान | Suzan

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Suzan  by मिथिलेश कुमारी मिश्र - Mithilesh Kumari Mishra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जैसा उदात्त व्यक्तित्व आज एक बारनारी के घरणों में झुका ? मैं मर क्यों न गयी ?” “तुम और चाहे जो भी कहो, सुजान ! अपने भर मेरे मध्य वासना का नाम कभी ने लेना । लगता है तुमने हो सुे नरक में ढकेल दिया 1” इतना वदते-कदते उसे लगा कि अधिक देर वह सका तो विशिष्ठ हौ जाएगा 1 वह्‌ पीठे कौ भोर मुडा-- जामो सुजान | मैं यही समझकर वापस जा रहा हूं कि कभी-कभी देवता भी चौपट पर सर रगड़ते भक्त को ठुकरा देते हैं ।' आनन्द का कण्ठ शेध गया और बह भागे बोल न सकाँ । सुजान की सुझ पेनी थी । उसने तत्काल भाँप लिया है, कवि हैं साघारण मानव नहीं । भयभीत-सी सुजान उसके आगे लपक कर खड़ी हो गई । “आनन्द ! मुन्नमे इतनी शक्ति अथवा साम्यं नदी कि तुम्हारे इन विशेषज्ञों को धारण कर सकूं और सुनो तुमने राग छेडा है तो सुनो, यद भी घ्यान रहे कि इस भवन से तो जाने के लिए ही लोग आते हैं परम्तु तुम 'लोग' नही हो । मेरे आनन्द हो, तुम जा कैसे सकते हो ? दुको, मैं तुम्हारे लिए मधु रस साती हूं । सुजान वियुतु गति से पार्शव के कक्ष में घुसी । आनन्द का मुंद कुछ बोलने के लिए खुला किन्तु किससे वोले ? थोड़ी देर तक आनन्द अपने मे छोया रहा । सुजान कया है ? वह समझ नहीं पा रहा था । रूपयोवन-सम्पन्ना नर्तकी अथवा क्ञान-गरिमा से परिपूर्ण विदुषी ! उसकी दृष्टि मे सुजान सर्वश्रेष्ठ धी । शाही दरवारमें उसके सलित चत्य पर निछावर होते हो उसने भच्छे-अच्छे कु्ीन राजाओ, सामन्तों और दरबारियों को देखा था । रंगीले शाह की तो वह इच्छा ही थी । एकाघ दो वार जब अर्थ-व्यवस्था पर विचार-विमर्श करने वह्‌ शाहूंशाह कै हरम में बुलाया गया तो वहाँ यही सुजान अपने कोमल करो से शाह्‌ को मदिरा पिला रही थी । आश्चर्यमयी सलने ! तेरे रूप-वैक्िम्य से तो विधाता को भी दंग होना पड़ेगा । कैसी विकट संगति है / ऐसी विशुद्ध कास्ति को ऐसा जपन्य जीवन देकर ब्रह्मा भी पश्चाताप कर एह होया । आनन्द ने मन हो सन इस देवी का बन्दन किया 1. ज्रि.




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