ढूंढक ह्रदय नेत्रांजनं | Dhundhak Hridaya Netranjanam

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Dhundhak Hridaya Netranjanam by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ददौ नीके-कि्नेक, अषूर्ववाक्य. ८ १७ )` हे दंडनीनी ? इसमे भी ख्या करना कि-मव तूने-जेनध- भके तश्वसि-बिपरीत ेखको शिखा, तव ही जैनधर्मतं विरोध रखनेवाछे-ते पंडितरनि, तेरी भसंसा कई ? इस वातसे तूने श्या जंडा छगाया ? । पाठकगण ! इस जाहीरातमें-दूंढनीजीने-प्रथम यहं किला है कि-सूत्रपमाण, कथा, उदाहरण, युक्ति आदिं, हस्तामरूक करानेपें-झुछ भी वाकी नहीं छोडी । इसमें इतनाद्दी विचार आता हें कि-आजतक जो जो -जेन धर्मके-धुरंधर महापुरषां हो गये सो तो-सून्रादिक भाति दस्ता- मरक फरानेमे सव इछ वाकी री छोड गये हे । केवरु-साक्षात्पणे पवैत तनयाका खरूपको धारण करके-इस दहर्नानीने दी-ङ्छ भी वाकी नहीं छोडा है ? 1 हमको तो यही आथरयै होता है कि, इस दृढनीजीको-जूढा गर्ने, कितनी वे मान वनादी है १। क्यौकि दंढनीजौनि- नेन वर्भके त्की व्यवस्याका नियमानु- सार-एक भी वात, नहीं छिखी हे । तो भी यर्व कितना किया है? सो इमारा छेखकी साथ विचार करनेंसे-पाठक वर्गको भी-माछूम: हो जायगा 1 | ओर हम भी उस विषयक तरफ 'वेखतो वखत पाठक वर्गका किंचिद्‌ मात्र ध्यान खेचेगे। ओर ठंढनीनीकी इयुक्तियाको, तोड- नके सिवाय, नतो अशुद्धियांकी तरफ लक दिया है । ओर नतों पाठईंवर करके-वां चनेवाछेको कंटाला उत्पन्न करनेका. विचार किया हे । केव्‌ श्री अनुयोग दवार सूतके बचनादु्ार-चार नि- जेपका, यत्‌ किंचित्‌ स्वरूपको दी-समजानेशा विचार किया है । सो चार करनेवङे-मव्य पुरुषाको, हमारा यही कहना हे कि- आजकाकके नवीन पंथीयोंकि विपरीत बचनपर आग्रह नहीं करके;




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