ऋग्वेद संहिता पनिश्च्छतकम | Rigved Shatkam Rigvedsanhitopnisachhatkam

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Rigved Shatkam Rigvedsanhitopnisachhatkam by महेश्वरानंद गिरी मंडलेश्वर - Maheshwaranand Giri Mandaleshwar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प पमान्‌ सं बृहन्त =अदितं न मयुते-मन्तु-साकषाक्क्ं च न शकरोतीलरथः । वेदोप- निपत्येवाधिगतोऽयं पुरुपः ओपनिषदः, उपतिपदेकवेदय इत्युच्यते । न तावदुपनिः पत््रतिपाद्योऽयमदेतात्मा चाह्य्रत्यक्ष्य प्रमाणय विप्रयः-न तत्र चछ्र्गच्छतिः (ङे, १।३) इति श्रुतेः । तत्र शरुलयन्तरयुपपसिं दर्शयति संयो तिष्ठति सूपमख “न वक्षुपा पयति फथमेनम्‌ / (शे, ४।२०) इति । अयमर्थः-अख-प्रतयमदैतातमनः, संद्यो-सम्यग््रं, तत्र सूपं~नीरुपीतादिकं इखदीरथैलवायाकारं वा, न ॒तिष्तिननं विद्यते । अतः कथन=कोऽपि प्राणी, एने परमासन चष्ठप न पयति ! चक्ुपो स्पेकविप्रयतात्‌» रूपरदिते तसिन्‌ तत्कथं अवतितुं शक्कुयात्‌ १ न कथमपि । यथा सूपरादि्यादात्मा चक्षुविपयो नालति, तथा रब्दादिरादियाच्छोत्रादि विप्रयोऽपि नास्तीति कटशुलयाऽऽप्नायत्ते-अश्ब्दमरपशेमरूपमन्ययं तथाऽरसं नित्यमगन्धवच यत्‌ (का, १।३।१५) इति । एवं मानसप्रयक्षखाप्ययमात्मा न विषयः । न मनो गच्छति (के, १३) प्राप्य मनसा सह' (ते. २।४।१) इदयादि्तेः । चुदत-अद्वैत-प्र्ण रस का साक्षात्कार करने के लिए समर्थ नहीं होता है। वेद की उपनिषदों मे ही यह जाना गया पुरुप-परमात्मा औपनिपद है, अयौत्‌ वह एकमात्र उपनिपत्‌ से ही बेच-ज्षेय है, ऐसा कहीं जाता है । उपनिपद्‌.पतिपाय यह शद्रैत-र्ण-तहामिन्न-भात्मा, बाहर के चक्षुरादि प्रलक्ष-पमाण का मी विषय नहीं हे] उस अद्वैतात्मा मे चक्षु का गमन नदीं होता है ॥ इस कटति से मी यदी सिद्ध होता ६ै। उसमे अन्य श्रुति उपप्ति-युि का श्रदीन कती है-¶स आत्मा को सम्यक्ू- - देखने के लिए उसमे नीरपीतादि-रूपर नही रहता ३, इषि कोई भी इस आमा को चकु से मरही देखता दै ! इति । यदं अर्य है-इस प्रर्‌-अदैत-आात्मा का संचयो यानी सम्यक्‌ देन करने के लिए, उसमें रूप यानी नील-पीत आदि, या रुप यानी हखत्व-दीधत्व आदि आकार नहीं रहता है | इसलिए कोई मी प्राणी इस परमात्मा को चक्षु से नहीं देखता है। क्योंकि- चक्ठु एकमात्र रूप को ही विपय करती है, इसलिए घह चक्षु, रूप रहित-उस अन्तरामा में प्रदत्त हने के लिए कते शक्तिमान हो १ अथीत्‌ किसी भी प्रकार से शक्तिमान्‌ नहीं हो सकती ! जिस प्रकार रूप से रहित होने के कारण, आत्मा चक्षु का विपय नहीं है, तिस प्रकार शब्द आदि विषयों से रहित होने के कारण, श्रोत्र आदि इन्दियों का भी यह आत्मा विपय नहीं है, ऐसा कव्श्रति के द्वारा कहा जाता है-'यदद आात्मा.दाम्दरहित, रपर्शरदित, रूपरहित एवं अच्यय-निर्विकार है, तयां जो यह रसरटित, गन्धरहित एदं निला-अविनाशी है / इति । इस प्रकार यह आत्मा मान्त प्रक्ष का मी विषय नहीं हे । 'उसमें मन का गमन नहीं होता हे ।! “मन के साथ अन्य- इन्दियों उस आत्मा को प्राप्त न करके खाली ही 'ठौट जाती हैं ' इत्यादि-कठ एवं तैक्षिसीय- थुतिसे भी यही सिद्ध होता है |




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