वीर - सतसई | Veer Satsai
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
16 MB
कुल पष्ठ :
118
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)[ वीर-सतसद
विरह-वीर*
तजि सरबसु रस-बसु कियो गीता-गुर गोपाल |
माव-मौन-घुज धन्य वै बिरह-बीर वज-बाल ॥ ४० ॥
साध्यो सहज सुप्रेम-चत चदि खँडे की धार ।
बिरह-बीर व्रज-बाल ही रसिक-मड-रखवार ॥ ४१॥
-धन्य, बीर बज-गोपिका, तजी न रसकी मेड ।
हेत-खेत तं श्र॑तलो* दियो न पदिः पेड | ४२॥
दान-वौर
किधो ˆ उच्च हिम-शङ्ग-वर, किध जलधि गंभीर |
किथो * अटल ध्रुव-धाम, के दान-बीर मति-धीर ॥ ४३।॥
सुरतर ले कीजे कहा, श्ररु चिन्तामरि-देर ।
इक दधीचि की श्रस्थि पै वारि कोरि समर ॥ ४४॥
व्यक्ति ने पिस्तील चला कर मारा है ।
* साहित्यिकों ने इस नाम का वीरों में कोई विभाग नहीं किया है। पर वीररस का
स्थायी भाव “उत्साह विद्ध विरह मे, अच्छी माला मे, पाया जाता है । इसी से हमने अद्वितीय
विरहिणी ब्रजांगनाओं को विरह-वीर' नाम के नये वीर-विभाग में स्थान देने की 'रष्टला की है ।
{ गोपिन की सरि कोऊ नाहीं ।
जिन तृन सम कुल-लाज-निगड़ सब तोप्यों हरि-रस माही ॥
जिन. निजबस कीने नैँदनंदन विहरीं दै गलबाहीं।
सब संतन के सीस. रहौ उन चरन-छ्व की छाहीं ॥
--भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ।
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