वीर - सतसई | Veer Satsai

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ वीर-सतसद विरह-वीर* तजि सरबसु रस-बसु कियो गीता-गुर गोपाल | माव-मौन-घुज धन्य वै बिरह-बीर वज-बाल ॥ ४० ॥ साध्यो सहज सुप्रेम-चत चदि खँडे की धार । बिरह-बीर व्रज-बाल ही रसिक-मड-रखवार ॥ ४१॥ -धन्य, बीर बज-गोपिका, तजी न रसकी मेड । हेत-खेत तं श्र॑तलो* दियो न पदिः पेड | ४२॥ दान-वौर किधो ˆ उच्च हिम-शङ्ग-वर, किध जलधि गंभीर | किथो * अटल ध्रुव-धाम, के दान-बीर मति-धीर ॥ ४३।॥ सुरतर ले कीजे कहा, श्ररु चिन्तामरि-देर । इक दधीचि की श्रस्थि पै वारि कोरि समर ॥ ४४॥ व्यक्ति ने पिस्तील चला कर मारा है । * साहित्यिकों ने इस नाम का वीरों में कोई विभाग नहीं किया है। पर वीररस का स्थायी भाव “उत्साह विद्ध विरह मे, अच्छी माला मे, पाया जाता है । इसी से हमने अद्वितीय विरहिणी ब्रजांगनाओं को विरह-वीर' नाम के नये वीर-विभाग में स्थान देने की 'रष्टला की है । { गोपिन की सरि कोऊ नाहीं । जिन तृन सम कुल-लाज-निगड़ सब तोप्यों हरि-रस माही ॥ जिन. निजबस कीने नैँदनंदन विहरीं दै गलबाहीं। सब संतन के सीस. रहौ उन चरन-छ्व की छाहीं ॥ --भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ।




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