कविता कुञ्ज | Kavita Kunj

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Kavita Kunj by गणेश प्रसाद सिंह - Ganesh Prasad Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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थे कवि का आतलनाद टी हई इवास श्धतक की, तन म फिर कया आं सकी ? उनके प्रति की गद वान क्या, तनं मे जोह अमा सकती ? मरने पर शीतल कर्णल्द्रिय, पुनः काथं कया दे सकती १ करके श्रवण चापल्ुसी भी, भला रन्ति क्या ले सकती ? शायद इस जन-त्यक्त भूमि पर, कुछ झट, बीर-हृदय वारे । गड हुए होंगे इस थछ पर, तत्व-उयोति रखनेवाले ॥ अथदा वे भी सोप होंगे, कर राज काज़ जो सकते थे। था उनमें के कई व्यक्ति जो, गायक, कवि दो सकते थे ॥ हेतु न यश बढ़ने का उनका, अवसर की न इ अनुरति 1 स्वाभाविक जो भरी हुई थी, अन्तरात्मा में वह दाक्ति ॥ विकसित नहीं कभी दो पाई, कारण ? पक दीनता थी । इसी हेतु प्रस्फुटित डुई नहि, प्ररति-दत्त जो गुख्ता थी ॥ नील, अगाध जंरखुधि अन्वगत, अति गम्भीर शुफा के वीच । विभरू कान्ति मय मणी अनेका, पडे इप रहते भिर कीच ॥ छेकर जन्म अर्य पुष्य अति, केलति है मरु परः गन्ध । खिल करके सुरद्यति है सव, करती मास्त नष्ट सुगन्ध ॥ कृषक दुखद कानूम विलाशक, 'देम्पडेन' बन सकते थे | गमि चञ्चु सम पड़ अभासे, 'मिव्टन' कवि हो सकते थे ॥ 'कॉमवेल' से बीर युद्ध-प्रिथ, इन में से दो सकते थे। व्यथं जरी बे रक्त बहति, देदा-दुःल खो सकते थे राज-लीति परिषद्‌ मे भी वे, उत्तम मान खदा पाते। नहीं विनाश, कष्ट पाने की, कुछ भी वे परा करते । उनका भी इतिंदास जाति फी, ओखां म होता अदं । निज कर्तव्य पाठते वे सब, करते अधिक देश-उत्कष ॥ केवल उर्नकी किस्मत दी ने, उनके सद्युण कुचल दिए । साथ साथ हीं गोण सारे, उनके चकना चूर किए ॥ ६




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