उतिष्ठत जाग्रत | Utishthat Jagrat

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Utishthat Jagrat by स्वामी विवेकानन्द - Swami Vivekanand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पुनन | (वि क्र 1, र क जतिष्ट ! १६ सन्त्व को जीवन दान दे सके । उस दिन जब ऐसे ही व्यव्तित्व का धनी माता की गोद मे उसकी उतरा तो फिर स्वागत वह्‌ केसे न करती ? शिशु बाराणसी के वीरेश्वर सहादेव की आराधना के भरसाद स्य मं जन्मा धा । अतः उसका नाम रक्ला गया “वीरेश्वर' । माता उसे प्रेम से पुकारती 'बिले' शोर पिता ने कहा सेरे पु का नाम होगा--'तरेन्द्रनाथ' ! लेकिन शायद उन्हें यह पता नहीं था कि यह नाम भी अतीत की घुंधली स्मुतिमात्र बनकर रह जायगा और विश्व नरे को विवेकानन्द के रूप्‌ मे जातेगा, उसौ रूप में उसक्ती वन्दना करेगा | आध्यासिक साधना, अपूर्वं चारिञ्य, प्रलद् स्वदेश प्रम, दीनो दुखियों अर दलिर्तौ कौ ममता से परिपूर्ण सेज वीये, ज्ञान से विभूषित भारत ही नहीं अपितु विश्व सानवता को चाता बन जायगा । बचपन तरेन्द्रनाथ बचपन से ही बड़े मेधावी धे} उनकी विलक्षणता बात्यकाल से ही स्पष्ट दिखाई देने लगी थी} कहते हैं कि एक वुद्ध पड़ोसी से रात में सोने समय सुभ- सुनकर 'मुक्तबोध' व्याकरण के सभी सूत्र उन्होंने कंठस्थ कर लिये थे । .'माँ भुवनेवशरी' से रामायण और महाभारत का पाठ सुनकर उसके अनेक अंश उनकी जिल्ला पर आ गये थे । बचपन से ही. नरेन्द्रनाथ मेधावी, सिर्भीक, रहस्यप्रिय, श्रूति एवं स्मृत्तिघर थ। जिसे वे एक बार सुनते या पढ़ते वह सदा के लिये उनके स्मृति पटल पर्‌ अकि हो जाता । रामभकत महावीर हनुमान जी नरेन्द्रवाथ के जीवनादर्श थे । यह्टी कारण हैं कि बड़े होते पर साहस, बल, बी्य॑ एवं पविन्नता की सुर्ति हनुमान जी की पूज उन्होंने निद्चित भारत में घर-बर प्रचलित करनी चाही । बास्यकाल से ही वे जिद्दी स्वभाव के थे । 'जिसे एक बार पकड़ते फिर कोई भी बाधा उसे दुहा म पाती । ताडना, धमकी, भय एवं लाभ सभी व्यर्थ जाते । में उन्हें डिगान पाते । माँ भुवनेश्वरी कभी-कभी अपने अशान्त पुत्र को मोदी में लिये बड़ा करती-''मैंने बहुत मनौती करके, शिव कै मन्दिर में घरना देकर एक पुत्र की कामना की थी, परन्तु उन्होने मज दिया एक भत 1 नरेन्ट्रनाथ की देखभाल करने के लिए दो नौकरानियां दिन सात उसके पीछे फिरा करती थीं । जब कभी उन्हें क्रोध आ जासा तो फिर द्विताहित का विस्मरण करके कुछ भी कर बैठते । घरके सारे सामान तोह- फोड कीर नष्ट कर डालते ध्यान धारणा एवं पूजन वंदन इनका बचपन का ही सहज संस्कार था । अनेक बार ध्यावमग्न हो बैठ जाते तो अपनी सुध-मुध खोकर बाह्म-अगत से इतनी दूर चले जाते कि दुनिया का उन्हें कुछ ज्ञान ही न रहता । रामकृष्णदेव नें भी दक्षिणेश्यर में एक बार उनका उल्लेख करते हृए कहा था कि. सरेद्व ध्यान सिद्ध पुरुप है. जिस




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