उपोदघात | UPODGHAT

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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उपोद्धात € वे ० स० पूर्वं तीसरी शताब्दी हृ९ है । मगर कई कारणोसे यह्‌ निशंय स्वीकार नदी किया सक्ता । जन दृतक्था या परस्परा- में कहीं भी ऐसा प्रमाण नदी मिलता, जिससे इन्दङुन्दाचायको भद्रवाहुका समकालीन गिना जा सके। इसके विपरीत, जो परम्पराएँं उपलब्ध हैं, वे उक्त निणयक्रा विरोध करती हैं। ऐसी सतिम छृन्दकुन्दाचायको भदवाहुका परम्परा-शिष्य गिनना चाहिए । सादित्यमे वहुत चार ऐसा ही होता है । उदाहरणार्थ-- 'उपमिति-भवप्रपम्धकथा' के लेखक सिद्धि ( ई० स० 6०६) दरिभद्कों श्पना धमप्रवोधकर रुरुः कहते दै । परन्तु श्चन्य विश्वसनीय प्रमाणंसे सिद्ध हो चुका है कि ने समकालीन नद्दी थे, क्योंकि दरिभट्र तो श्ाठवीं शताब्दी के '्घवीचके बादके समयमें हो तुके है । इन्ददुन्दाचायं पने श्रापफो भग्रवाहुफ शिप्यके रूपमे परिचित कराते ह, इसका एक कारण यह हो सकता है कि भदरवाह दी दरति जनेवाले सघके श्रगुवा श्रौर नेता ये। दक्तिणकरा संघ, उनकी मत्युके पश्चात्‌ यदि माने कि मे समस्त घामिक ज्ञान उन्दींके द्वारा प्राप्त हुआ है तो इसमें कोई श्राशर्यकी वात नहीं है | 'मतएव यह रांभव है कि छुन्दछुन्दाचाये भी यह मानते हों कि हमें समस्त ज्ञान भनवाहुके द्वारा ही प्राप्त हुश्आा है श्रौर इसी कारण वे श्वपनेको भद्रवाहुका शिप्य प्रकट करते हों । कालनिणेय प्टवियोके श्राधारपर जैनोमें परम्परागत मान्यता यह हु कि कुम्दकुन्दाचाय, इ० स० पूव १ली सदीमे तंतीस ब्पकी




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