ज्ञानयोग का तत्त्व | Gyanyog ka Tatv

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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च्लेयाग्य श्ख सयसे होनेवाला वैरार्य--संसारके भोग भोगनेसे परिणामों नरककी प्राप्ति होगी; क्योंकि भोगमें संग्रदकी आवश्यकता है; सुंग्रहके छिये आरम्भ आवस्यक हैं, आरम्भर्भ पाप होता है, पापका फल नरक या दुःख है । इस तरह भोगके साधनेमिं पाप और पापका परिंगाम दु:ख समझकर उसके समयसे विययोसे अछग होना भयसे उत्पन वैराग्स है । बिंचारसे होनेवाला वैरा्य--जिन पदार्थोको भोग्य मानकर उनके सज्जसे आनन्दकी भावना की जाती है, जिनकी प्राप्तिमें सुखकी प्रतीति होती है, वे वास्तवर्में न भोग हैं, न सुखके साधन हैँ, न उनमें सुख है । दुःखपूर्ण पदार्थोमे--दुःखर्मे हो अविचारसे सुखकी कल्पना कर छी गयी है. । इसीसे वे सुखरूप भासते हैं, चास्तवमें तो दुःख या दुःखके ही क्यारण हैं । भगवानने कहा है-- थे हि संसपर्शजा भोगा डुम्खयोनय एव ते ॥ आाद्यन्तबन्तः क्तैन्तेय न सेषु रमते बुधः ॥ ( गीता ५२९ ३ प्जो ये इन्द्रिय तथा विंषयोंक्षि संयोगसे उत्पन छोनेवाडे सब भोग हैं, वे यद्यपि विषयी पुरुषोंकों खुखरूप भसासते हैं, तो शी निस्संदेह दु.ःखके ही हेतु हैं और आदि-अन्तवाले अर्थात्‌ अनित्य हैं, इसलिये हे. अजुन ! बुद्धिमान, विवेकी पुरुष उनमें नहीं रमता |? अनित्य न प्रतीत हों तो इनको क्षणभज्ुर समझकर सदन करना चाहिये । भगवान्‌ कहते हैं--- ज्ञा७ यो ० तर ब---




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