लेखक की बीबी | Lekhak Kii Biibii

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ८ शिक्षा प्राप्त करने का अवसर न मिला, फिर भी श्राप में लिखने- पढ़ने का व्यसन है, प्रतिभा है। इसीलिये कत्ति में सफलता मिली है। जिस प्रकार से कुछ चुन्दरियो मेँ एक साभाविक्‌ मोलापन हेता है, पाउडर, लिपस्टिक श्रौर हियरवेव” का प्रयोग नहीं होता श्र वह दशकों के हृदय को जबरदस्ती खीच लेती है, उती प्रकार परा जी ने कला, श्रादि हास्य की विवेचना नहीं पढ़ी है । बगसों श्रोर क्रोचे से श्रनभिज्ञ हैं। केवल लिखना चाहिये ओर लिखने का नशा है, इसलिये लिखते गये हैं । परन्तु रचना में एक मिठास श्र एक आकर्ष है। भाषा में प्रवाह और भावों में जोर है। हमें इस बात की प्रसचता है कि हमारी बिरादरी में एक श्रौर श्राया । इस पुस्तक में कुछ दोष भी हैं शरीर उनका उल्लेख न करना उचित न होगा। पहला दोष यह है कि इस पुस्तक की भूमिका लिखाई गयी श्रोर उससे बड़ा श्रोर दूसरा दोष यह कि मुखसे । यदि भूमिका लिखाना ही था तो किसी दार्शनिक श्रथवा बड़े लेखक से लिखाना था जिसकी हिन्दी जगत में तूती बोलती हो। में नतो वैज्ञानिक हूँ न विशेषणकर्ता । और परुडा जी को इससे यह हानि हुई कि मित्र के नाते मैंने हाथ रोक कर लिखा है। उनकी रचनाओं के प्रति जितना न्याय होना चाहिये मैंने नहीं किया । इसका एक श्रौर महा-कारण यह उपस्थित हो गया कि उन्होंने मुक्ते खासा स्पाडर दे रखा कि “देखो मेरी विरुदावली गायन में न उलकना ।” इस भूमिका में यदि कुछ उटपटाज्ञ बातें श्रा गयी हों तो मेरा दोष नही है, पररडा जी का, जिन्होंने मुक्त जेसे व्यक्ति से इसे लिखवाया | कृष्णदेव प्रसाद गोड कलसी जयन्ती १६६१ एम० ए०, एक० टी०, विशारद प्रधान मन्त्री-काशी नागरी-प्रचारणी सभा




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