विज्ञान पत्रिका - जनवरी 2002 | Vigyan Patrika- January 2002

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Vigyan Patrika- January 2002 by डॉ शिवगोपाल मिश्र - Dr. Shiv Gopal Mishra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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स्थलों पर बोट्यूलिनम नामक जीवाणु से हमले किये गये थे यद्यपि ये हमले सफल नहीं हो सके | बोट्यूलिनम रोग स श्वास पेशिर्यो लकव स ग्रस्त हो जाती हैं तथा चौबीस घंटे में ही पीडित मनुष्य की मौत हो जाती है | 1991 में हुये खाडी युद्ध के पश्चात्‌ ईराक ने संयुक्त राष्ट्र संघ जांच समिति के समक्ष स्वीकारा था कि उसने बोट्यूलिनम की 19.000 लीटर मात्रा का उत्पादन किया था। इसकी एक तिहाई मात्रा ही संपूर्ण विश्व के विध्वंस हेतु पर्याप्त है | 1995 में टोक्यो (जापान) के भूगत मार्ग में अउम शिनरिक्या नाम धार्मिक समुदाय ने नर्व गैस छोडी थी जिसमें 12 लोगो की मृत्यु ओर हजारों लोग जख्मी हो गये थे | कुछ लोगों का मानना है कि रासायनिक हथियार जैसे कि सरीन व बीएक्स गैसें आदि जैविक हथियारों से भी अधिक खतरनाक सावित हो सकते हैं। जैविक हथियारों के मुकाबले इसका सबसे बड़ा लाभ यह है कि इसे एकत्र करकं हथियार के रूप मं प्रयोग करना आसान हे । अतः अब मनुष्य जाति को एसे युद्ध हेतु तैयार रहना होगा जो कि प्रलयंकारी परंतु अदृश्य शस्त्र से लड़ा जायेगा न कि अव तक्‌ प्रयुक्त परंपरागत व आधुनिक हथियारों से | आधुनिक युग में, विश्व में विज्ञान व तकनीक का इतना अधिक विकास हो चुका है कि जैविक एवं रासायनिक हथियारों को बनाना, उन्हं एकत्र करकं प्रयोग करना गोपनीय रखा जाना संभव नहीं हे । ईराक, सूडान व लीबिया आदि देशों व आतंकवादी संगठनों के पास ऐस भीषण अस्त्रों के होने की बात कही जा रही है। हार्लेकि संयुक्त राष्ट्र संघ के बैनर तले इनके निर्माण व प्रयोग के विरुद्ध संघियाँ हुई परंतु आतंकवादी गतिविधियों में संलग्न और उसे बढ़ावा देने वाले देश अपने स्वार्था हेतु इस पर हस्ताक्षर करने को तैयार नहीं हुये । परंतु यह सदैव स्मरण रखना चाहिये कि ये शस्त्र संपूर्ण मानवता कं विरुद्ध हैँ । जब तक जैविक एवं रासायनिक हथियार हैँ, इसका खतरा सदैव मण्डराता रहेगा । अतः जब आतंकवादी अपने अस्तित्व को ही खतरे में पायेंगे तब वे इनका प्रयोग कर बड़े पैमाने पर विश्व में विध्वंस मचा सकते हैं। अतः: संपूर्ण दुनिया को इसके विरोध में एकजुट होना होगा, इन शास्त्रों के विरुद्ध विश्वव्यापी अभियान चलाकर विभिन्‍न देशों की सरकारों तथा जनसाधारण को सजग करना ही होगा तथा जांच जनवरी 2002 विज्ञान एजेंसियों को अपने परंपरागत तरीके त्यागकर, नई एवं असरदान तकनीकें अपनाकर सक्षम खुफियातंत्र को विकसित करना होगा। खुफिया तंत्र को विश्वस्तर पर सूचनाओं के आदान-प्रदान, भागीदारी व सहयोग से भावी जेविक व रासायनिक खतरों से निपटने में सहायता मिल सकती है। [_॥ 272ए, न्यू लायलपुट कालोनी, सोम बाजार, चन्द्र नगर, दिल्ली-110 051 पृष्ठ 6का दोष ... पदार्थो एवं पेयजल के विषाक्त करने के लिये किया ही था | इसके दो स्ट्रेन (प्रजातिर्यौ) क्रमशः आंत्र शोध व मियादी बुखार के माध्यम से शत्रु की इच्छाशवित्त को दुर्बल कर देने मं सहायक सिद्ध हुये हँ । यद्यपि मृत्यु चार प्रतिशत से अधिक की नहीं होती । छिगेला बैक्टीरिया भी 48 घंटों के बाद खूनी पेचिश के माध्यम से ऐसा ही कंरता है और द्वितीय युद्ध में जापानी इसका भी परीक्षण कर चुके हैँ । आर. प्रोवाजैकाड भी वायु माध्यम से आक्रमण कर महामारी के रूप मे टायफायड फेला सकता हे, मृत्यु दर 10-40 प्रतिशत रहती हे । युद्धो मे मौँ काली का खप्पर कभी भी सूखने न पाये इसके लिये आज के अनेकों वैज्ञानिक सतत्‌ प्रयत्नशील हैं । युद्ध ही उनका धर्म है और शत्रु का दैहिक कष्ट अथवा मरण, परम कर्त्तव्य। इसके लिये अपनी आत्मा को वह अपने पाशविक ज्ञान से पूर्णरूपेण आच्छादित कर चुके हैं। अब सम्पूर्ण मानवता युद्धोन्मादियों के रहमोकरम पर है | भविष्य में किसी बुद्ध या गांधी का अवतरण ही उसे नैराश्य से गहन गद्दवर से मुक्ति दिला सकता है। [|] श्री वेकटेद्ा भवन 445-बी, देव कॉलोनी रोहतक-124 001 14




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