अथर्ववेद- एक साहित्यिक अध्ययन ग्रन्थमल-61 | Atharvaved Ek Sahityik Adhyayan Granthamal-61

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(१६) दधतं हैं जो राजा के लिए श्रयर्वागुर को वरण करने के लिए कहते हैं। उनके अनुसार राजा वा श्रयर्वागुरु ही राष्ट को सुख-समृद्धि प्रदान कर सक्ता है। यहां यह भी कहा गया है कि जिस राजा का श्रथवंवेदवित्‌ गुरु नहीं होता है, उसकी दी हुई हृविप्‌ को न तो देवता ग्रहण करते हैं, न पितर ग्रौरन ब्राह्मण हो। ऋग्वेदी तो राष्ट्र को नष्ट कर देते है; यजुर्वेदी पुत्नों काविनाश करता है श्रौर सामवेदी घन नाश करता है । अतः: गुरु तो आाथवंण ही होना चाहिए। पैप्पलाद भ्र्थात्‌ श्रथववैवेद की पैप्पलादशाखा में निष्णात ग्रौर शौनकी ग्र्थात्‌ शौनक शाखा में पारंगत हौ गुरु करना चाहिए; वयोकि इसी से लक्ष्मी, रष्ट्‌ तथा झ्रारोग्य श्रादि का वर्घेत हो सकता है- न हुविः प्रतिगृह्डन्ति देवता: पितरो दिजा: । तस्य भुभिपतेयंत्य गृहे नायर्वविद्‌ गुरु: 11 समाहिनाज़ प्रत्पड्ध विद्याचारगुणार्वितम्‌ 1 पप्पलादं.. गुरूं .. कुर्याच्छीर'प्ट्रारोग्यवर्धनम ॥। तथा शौनकिनें वापि वेदमन्त्रविपशिचतम्‌ । राष्ट्ररप चुद्धिकर्तारंं घनघाग्यादिसि: सदा ॥ वहूवृचो हन्ति वं राष्ट््‌मध्वरयरनाक्षयेत्सुतान्‌ 1 छन्दोगो घननाकज्ञाय तस्मादाय्चणो गुरुः । --राष्ट्शवगं २.३.४-५; २.४ १,३ एक श्रन्य परिशिष्ट ( पुरोहितकमेपरिदिष्ट--षख्या ४) भी राजा के लिए श्रथर्वागुर्‌ को ही उचित वताता है, जो उसके शान्तिक पौष्टिक कर्मों को कर स्के! जहां वहु रहतादहै, वहु रषष्ट्‌ निरुपद्रव होकर वृद्धि को प्राप्त करता है श्रौर जहाँ वह नहीं रहता, वह राष्ट्र उसी प्रकार पीड़ित होता है, जिस प्रकार पंक में फंसी हुई गाय। इसलिए राजा को चाहिए कि चह श्रवर्ववेदवित्‌ जितेन्द्रिय गुरु को दान, सम्मान तथा सत्कार प्रादि से पूजित करे प्रौर जो राजा ऐसा करता है वह सवंदा {९ सुख को प्राप्त करता है ग्रौर सम्पूणं पृथ्वी का उपभोग करता है- यस्य रान्नो जनपदे श्रयर्वा क्ल तपारगः। निव्तस्यपि तद्‌ राष्ट्र वर्घते निदश्द्रवम्‌ ॥ य्य ॒रान्नो जनपदे स नास्ति दिविघंभयंः 1 पीड्यते तस्य तद्राष्ट्रं षड्कं पौरिव मज्जति ॥




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