पुण्य पाप तत्व (1999) एसी 6977 | Punya Paap Tatv (1999) Ac 6977
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9 MB
कुल पष्ठ :
240
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)कषाय तो पाप रूप ही होते है।
पाप त्याज्य है, पुण्य नही, इस तथ्य की पुष्टि आगमो के उन व्यो से होती
है, जिनमे सर्वत्र पाप को ही त्याज्य निरूपित किया गया हे । सवे पाप कर्मों
को क्षय करने का सकेत किया गया है, पुण्य कर्मों के क्षय का कही कोई
उल्लेख नही है । तवसा धुणडइ पुराणपावग' (दशवै 9 4 4) सवरेण कायगुतते
पुणो पावासवनिरोह करेइ (उत्तरा 29 55) आदि वाक्यो मे पाप कर्मो के
आखव-निरोध या उनके क्षय करने का ही सकेत प्राप्त होता है, पुण्य कर्मो के
आस्रव-निरोध एव उनके क्षय का नही ।
तत्त्वज्ञान ओर पुण्य पाप' प्रकरण मे लेखक ने प्रतिपादित किया है कि
आस्रव, सवर, निर्जरा आदि तत्त्वो का आधार पाप कर्म है, -पुण्य नही । जब
आस्रव त्याज्य होता है तो पुण्य का आखव त्याज्य नही होता, पाप का ही
आखव त्याज्य होता है । खवर भी पाप प्रवृत्ति या साक प्रवृत्ति काही किया
जाता है, शुभ प्रवृत्ति का नही ! इसी प्रकार साधना के द्वारा निर्जरा भी पाप कर्मो
की ही की जाती है, पुण्य कर्मों की नही । पुण्य कर्म अघाती होते है, अत वे
लेशमात्र भी आत्मगुणो को हानि नही पहुँचाते । लेखक का तो “कर्म सिद्धान्त
ओर पुण्य पाप' प्रकरण मे यह भी मन्तव्य है कि अघाती कर्म की पाप प्रकृतियो
मे भीजीवके किसी गुणका घात नही होता है तब पुण्य प्रकृतियो को जीव
के लिए घातक या हेय मानना नितान्त भ्रान्ति है । इस प्रकरण मे पुण्य-प्रकृतियो
के सम्बन्ध मे विशेष सूचनाए दी गई है, यथा-
(1) जव तक पुण्य कर्म-प्रकृतियो का द्विस्थानिक अनुभाग बढ़कर
चतु स्थानिक नही होता है तब तक सम्यग्दर्शन नही होता है ओर यह
चतु स्थानिक अनुभाग बढ़कर उत्कृष्ट नही होता है तब तक केवल ज्ञान नही
होता है । (पृष्ठ 35)
(2) देवद्विक पचेद्धिय जाति आदि 32 पुण्य प्रकृतियो का उत्कृष्ट अनुभाग
बन्ध उसी भव मे मुक्ति प्राप्त करने वाले जीव ही करते हैं । (पृष्ठ 35)
(3) चौदहवे अयोगी गुणस्थान के द्विचरम समय तकं चारो अघाती कर्मो की
85 पुण्य-फरप प्रकृतियो की सत्ता रहने पर भी केवलज्ञान, केवलदर्शन आदि
क्षायिक लब्धियाँ प्रकर होने मे बाधा उपस्थित नही होती । (पृष्ठ 40)
(4) मनुष्यगति, पचेन्द्रिय, जाति, सुभग, आदेय, यशकीति आदि
पुण्य-प्रकृतियो के उदय की अवस्था मे ही श्रावक (अणुतव्रत), साधुत्व (महाव्रत)
तथा वीतरागता की साधना एव केवलज्ञान, केवलदुर्शन की उत्पत्ति सम्भव है ।
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