सामाजिक पाषण | Samajik Paashan

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Samajik Paashan by बूलचंद - Boolchand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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परिच्छेद ३ दाक्तिदालीतम का अधिकार सबसे णवितणाली मनुष्य भी इतना शक्तिशाली नहीं होता कि अपनी डावित को अधिकार में और दूसरो की आज्ञानुसारिता को कर्तव्य में परिवर्तित किये विना सदा स्वामी रह सके । इसलिए णक्तिशालीतम का अधिकार, प्रत्यक्षत विपरीत लक्षणा होते हुए भी, यवार्थ में सिद्धान्त पर स्थापित है। परतु कया कोई इन णव्द का विवेचन नही करेगा ? वल एक भीतिक यविति है! इसके फटम्वर्प वेया गीन्द उत्पन्न हो सकता है, मुझे स्पप्ट नहीं । वल को अनुनम्न करना एक छाचारी त्रिया होती है, इच्छित फिपा नहीं हो सकती, अधिक से अधिक यह एक चनुराई की त्रिया हो सक्ती ह! परन्तु क्या किमी अवस्था मे यह्‌ कर्तव्य मी माना जा मवला ह इस मिथ्या अविकार को तनिक कल्पितिभी कर्‌ टे तो इसन तकंहीन प्राप के अतिरिक्त कुछ सिद्ध नहीं होता, क्योंकि यदि वल में अधिकार निहित हो तो परिणाम कारण के अनुस्प चदद़ जायगा, और जो बल पहले बल को पराजित कर देगा वह उसके अधिकारों का भी उत्तरवर्ती हो जायगा । ज्योही मनुप्य आन्महानि वे भय ने सुर्गलन हो जवज्ञा कर सकता है, उसे न्यायपूर्वक ऐसा करने का अधिकार होगा ओर चूंकि यव्ितिगान्टीतम मनुष्य सदा साधिकार होता है इसलिए ब्यविन को म्ब्य घवितणालीतम वनने के लिए ही क्रियाशील होना चाहिये । परतु यह किस प्रतार या अधिकार होगा जो बल के शीण होते ही समाप्त हो जाय । अपर, यदि जाज्ञा- पालन बल से ही जावय्यक हैं तो आज्ञापाउन के पर्वव्य या प्रयोजन ही दया हुआ और यदि मनुष्यों को जान्ञापालन को वाध्य करना नहीं हैं तो कर्तव्यता का अत हो जायगा । उपनक्रनमन्यष्ट हैं कि थब्द-वद से युस्त अधिदार से कोर्ट प्रमेजन सिद्ध नहीं होता वह नवधा निस्यक है 1




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