विज्ञान परिषद का मुखपत्र | Vigyan Parishad Ka Mukhpatra

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Vigyan Parishad Ka Mukhpatra by कुलदीप चन्द्र - Kuldeep Chandra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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विज्ञान अक्टूबर-नवम्बर-दिसम्बर, १६४८ | भाग ६८ तपती किवत मितत विके) [ लेखक--डा० सत्यप्रकाश `| दाशनिक ऊद्दापोह में सब से जटिल पिद्धान्त फाय्य- कारणवाद का है | काय्यंकारण सम्बन्ध की व्याख्या का ही नाम दर्शन-शाख्र या श्रन्वीक्षिकी है श्रौर श्राधुनिक विज्ञान भी काय्यकारणु की परम्परा निर्धारित करने का एक रूप है । इश्यमान जगत्‌ की झनेक घटनाओं का सामझस्य काय्य-कारण सम्बन्ध के श्राघार पर करने की ही चेष्टा की जाती है । काययं-कारण की परम्परा के अध्ययन ने ही नेक प्रकार के ग्रदवैतवादों को एवं शूल्यवाद, त्रेतवाद, प्रकृतिवाद, परमाशुवाद, संशयवाद, द्मनिश्चयतावाद, ग्रज्ञ यवाद ्रादिश्रनेक वादो को जन्म दिया है | ये सब वाद निर्विवाद कई बातों में एक मत हैं--(१) मनुष्य का यह स्वाभाविक अधिकार है कि दृश्यमान घटनाश्रों की व्याख्या करे | (२) मनुष्य में इतनी सामथ्य है कि चाहे वह पूर्ण व्याख्या में सफल न हो, पर वह इसका प्रयास श्रवश्य कर्‌ सकता है | ( ३) पारमार्थिक तल पर न सही, पर व्यावहारिक, तल पर टश्यमान घटनाओं का होना और सब का न सष्टी पर ऊ का तौ काय्य-कारण सम्बन्ध मेँ श्रावद् दोना एक परम सत्य है | (४) जो मस्तिष्क झ्थवा जो श्रनुमूति परम श्रद्वैत तक हमको ले जाती है, उसी ने तों संशयवाद, खह्ववाद, प्रऊृतिवाद श्रादि सब वादों की जन्म दिया है, गरतः कै एक वाद्‌ तो सवधा सत्य हो श्रौर दूसरे वादों में कुछ भी सचाई न दो, यह संभव नहीं है | (श) शान का समस्त प्रसार काय्यकारण की व्याख्या के आधार पर ही हुआ है। दम काय्यकारण के अविच्छिन्न सम्बन्ध को कितना ही झमान्य क्यों न समझे » पर हमारी यह श्रमान्यता भी तो काय्यकारण संबन्घ के प्रयास का एक फ़ल हे | ग्रतः यद स्पष्ट है कि कार्य्यकारणुवाद संसार के समस्त वादों का आधार है । श्राप लोगों को कोई संशय न हो, इस लिये मैं त्रारम्भ में ही एक चेतावनी दे देता हूँ । जिस प्रकार दम श्राजभी निश्चयपू्वक नदीं क सकते कि ग्रसुकवाद्‌ सवथा सत्य श्रथवा श्रमुकवाद सर्वथा मिथ्या दहै, उरी प्रकार काय्यं कारण मे क्या संबन्ध है, दस विपय्‌ मं भी दम किसी एक बाद को प्रतिपादन नह कर सकते । यदि श्राप यह श्राशा रखते हों कि मैं श्राज प्राप के समन्ते किसी श्रकास्यावाद का प्रतिपादन करूँगा, या कर सकंगा तो यह मेरी श्रयोग्यता सूचक दोप नीं है प्रत्युत इस प्रकार की श्ाशा रखना श्रापका ही एक दोष होगा | मेरी तो यही श्ाव क्षा है कि सूगतृष्णा की भाँधि श्राप मुझसे श्रधिक श्राशा न रकखें । कार्य्यकारणु' की व्याख्या समरत विश्व की व्याख्या है, पर य भी सन्दिग्ध कि इस विश्व की कोई एक व्याख्या है भी या नहीं, श्रौर यदि कोई एक व्याख्या हो भी तो क्या वह मत्यं द्वारा गतभी द सकती है या नहीं | इस सम्बन्ध में जो कुछ प्रयास हुये हैं उनकी एफ भकाँकी श्रापके समझ्त रक्खूँगा | भॉँकी देख कर दशक की तृप्ति श्राज तकता जगत्‌ म टद नदी, भणी का उद्देश्य है कौतूहल फी दद्धि | य झ्र।पके इस कौतूदल को कुछ बड़ाने का प्रयक्ष करूँगा | स्त्य कौ ग्रनुमूति के लिये वक-संगव व्याख्या या न्याय युक्त परिभाषा की नितान्त श्रावश्यक्ा नहीं होती | तर तो पटे लिखों का--दाशनिकया 'श्रन्पीक्षुफों का । एक्‌ व्यायाम है | गो, ग्रश्व,. द्वि शमादि की श्रनुभूति शिशु श्रौर अ्रशिक्षित सभी को दोती है यद्यपि वे इन पदों कौ तारिक व्याख्या या परिभाषा नहीं कर राकते | ग्याठ्या करने कौ कमता श्रधिकन होने के कार दाशनिकों ने गो श्रादि की न्धि रौर ग्रपिन्याति दोप- रददित जो परिभाषायें की हैं वे केवल उपडाशाश्पद हैं; उपदासास्पद नहीं तो कम से कम श्रव्यवहार्थ तो श्वश्य हैं, कोई भी शिशु सारना देख कर गाय की पहचान नहीं कत्ता, श्रौर इस दाशनिक परिभाषा से श्रपर्रिचित रहने पर भी गाय के पहिचानने में वह कभी मूल नहीं करता |




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