विंध्याटवी के अंचल में | Vindhyatavi Ke Anchal Men

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Vindhyatavi Ke Anchal Men by प्रयागदत्त शुक्ल - Pryagdatt Shukla

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१८ विंध्याटवी के अचल में भाज हिंदुओं के अंतगंत प्रचलित देवतागण॒ भी श्रनार्यो के देवता हैं । यद सब सहवास से होता श्राया है । इपलिये विद्वान्‌ लोग भारत को भिन्नभित्र संस्कृतियों का संगम-स्थल कहते हैं । छान-बीन करने पर ये भेद साफ़ दिखलाई देते है । उदाहरणाथ--व दिक यों के मिलन का स्थल यज्ञ था, भ्रौर्‌ अवं दिकं का तीर्थं । तीथवस्ु यह वेदबाह्य है। इसी कर्ण वेद-विरोधी मत को तैर्थिक कहते हैं । गंगा-यमुना का माहात्म्प ्ार्यो के श्रागमन के पूर्व का है । नदी, दक्ष, जीव-जंतु के पूजक अनाय थे, श्रौर उसी के स्मारक उनके कुलो के नाम भी जीव-जंतु, त्त -लता, नदी, पहाड़ों पर पाए जाते हैं । व्योहदारों को लीजिए--होलिकोत्सव (वसंतोत्सव) अनाय-त्योहार है, इसलिये उस्रका नाम शूद्रोत्सव रख सकते हैं। विवोह के ऋ्वसर पर सिंदूर-दान का महत्त्व अनाय-जातियों में पाया जाता है । कई बातें खोज करने से मिल जाती हैं । इससे यह स्पष्ट है कि हमारे बहुतेरे देवता, तोथ, उत्सवादि श्रनारय हैं, श्र विजातियों ने भी उन्हें ब्प्रपनाया कलांतर में आय श्रौर शनन।य-संघषं शात होते गए । सभी जातियाँ भारत को अपनी मातृभूमि समककर रहने लगीं । फल यह हुश्रा कि ध्मार्याने भी श्रनार्यां की कई बातें अपने यहाँ ग्यव्रहूत कीं । प्रकृति के नियमानुसार सामाजिक श्दान-प्रदान भी होता रहा | बहुत-सी अनायं- जातियां हदु खो मे समाविष्ट दा गड्‌, ओर्‌ जिन्होंने अपनी संस्कृति की रक्ता करने की कटूरता दिखलाई, वे शमनाय आज भी जंगल में मंगल करते हैं। पुराण-काल में ( इसा से ५ सदी पूव ) भारत विंध्य-पव त द्वारा दो भागों में विभाजित आय श्रौर द्रविड़ ह्र), उसी का नाम उत्तरापथ श्रीर दक्षिणापथ है । यद्यपि समस्त भारत काएक ही राष्टू-घमे था, तथापि रस्म-रिवाज्ञ, खान-पान, बोल-चाल भिन्न-भिन्न था । उन्तर-भारत में श्राय- संस्कृति शुद्ध न रददी--उसमें भी द्रंविड़ों की चछंटादेखने मेँ श्रतीदहै, भिन्न-भिन्न संस्क- तियों का संगम




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