दयानन्द चरित | Dayanand Charit

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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के झनुवादककी भूमिका ऋषि दृद्धानन्दका गोरव यही था कि उन्होंने बेदिक सूचक ऊपर छाये हुए लाब्छन रूपी बादलोॉंको छिन्नमिश्न करके पुनः उसक स्वच्छ 'झार जीवनप्रद प्रकाशकों प्रसारित किया । उन्होंने बतलाया कि बेद ही सम्पूण ज्ञानके मूलख्रोत हैं । वे श्रपौरुषेय हैं; उनमें केवल एक अजर; अमर, अविनाशी, सबंब्यापक, सवशक्तिमान्‌, निराकार; निर्विकार परमेश्वरको उपासनाकी ज्ञा दी गद ह । रत्नि, वायु श्रादि जिसको अन्य श्राधुनिक भाष्यकार देवविशेष मानते ह ईश्वरक गोण नाम दै । हां प्रसङ्ख- वश वे भातिक पदर्थोक लिये भी प्रयुक् दोतंरह; परन्तु ज्य कहीं उन्हें उपास्य रूपसे वणेन किया गया है वहाँ इश्वरवाचक षो टै । दव शब्दने जिननी भान्ति उत्पन्न की हं उतनी किसी अन्य शब्दने नदौ की । झाधघुनिक भाष्यकारो ने देब शब्दसे हरेफ स्थानम उपास्यदत्रके ही श्रथ ग्रहण किये श्रोर इस कारण वे वे्दोमिं अनेरु देर्घेकी उपासना का विधान मनने लसः । ऋषि दयानन्द इस कालफ स्यात्‌ सबसे पदिते भ ष्य र है जिन्होनि देव शब्दक सच्चे अर्थोक्रा प्रकाश किया । उन्होने बतलाया कि देव किस योनिविशेषका नाम नदी हे । वह्‌ सच पदार्थाक लिये चाह जड़ हों या येतन, प्रयुक्त हो सकता है, यदि उनमें दवियीत- कांतिविजीगीपा, श्ादि गुण पाये जात हें; झोर इसलिये बेदोंमे किसी वस्वुको देवनाम से यभिदहित होते देखकर यष्ट नदा समभ लेना चाहिये फि उस पदाथेको उपास्य माना गय! है । इसी प्रकार पितर शब्दके अथं बयोषृद्ध क्ञानीके है न फि मृत पिनामहःदि के । यज्ञ शष्दके सम्बन्ध भी देव शब्दके समान ष्टी भ्रान्ति केली हृ है। यक्नमिं पष्टबलिदानकी प्रथा षाममार्भिर्योके समयमे भरतव म प्रचलित हर । ऐसा प्रतीत होता है कि भारतवषंसे यह्‌ प्रथा मूसा ादि मतोंने प्रदश की, इसलिये योरुपके




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