दुःख निवारण अंक | Dukh Nivaran Ank

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Dukh Nivaran Ank by स्वामी सदानन्द - Swami Sadanand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अट १) |= £ टुःखचमुष्टय के नि्ारक वणे चतुष्टय ६. ५ मन ~ र अभाव भी दुःख के हेतु दो जाते हैं । इनमें अन्न का अभाव तो सय से ज्यादा कश्टदायक माना गया है आज-कल देश मे सतन व्रद्धिबड़े जोरों से दो रद्दी है। देश के नेताओं के लिये यह बड़ी चिन्ता का विषय वन गई है । सतानाभिवरद्धि ॐ साथ यदि खाद्‌ सामग्र्य की भो श्रभिघरुद्धि होती रहे, अर्थात्‌ दोनों का सतुलन वना रदे, तो चिन्ता की कोई वात नीं रहती! परन्तु एरु ओर, प्रति वर्षं पचास लाख से भी श्रधिक नये-नये खाने वाले मुह प्रकर होते च्ले जोय, दूसरी ओर खने कौ चीजोंकी कमी होती चली जाय तो समाज तथा राष्ट दोनों के लिये दुःख का कारण हो दी जाता है। इस भगार न्यान्य वस्त्र सकान 'आझादि वस्तुओं का 'झभाव भीदुखदेता रहता है। वतमान समयमे बाजार में प्राय सभी चीजों में नकली चीजों की मिलावट पाई नाती है। घी, तेल, आटा, आदि अनेक वस्तुयें असली रूप सें नद्दीं मिलतीं । लेने जाते हैं--झसली घी, उसके लिये तिगुना दास भी देते हैं--परन्तु मिलता-है--अस्सी प्रतिशत मिला हुआ डाल्डा । डाल्डा यानी मू-गफन्ली खोपड़ा श्नादि का परिष्कृत जमाया हुआ तेल 1 देखने मे वह्‌ घी मा दी मालूम होगा । इसलिये तो अर ती नकली का पता प्राय नदीं चलता । परन्तु धी के गुण उसमे कदो से आवेगे ? इस प्रकार तेत भी शुद्ध नद्दीं सिलता । गेहूँ भी, चावल सी कूड़ा-फर्कंट से भरा हुआ रदी कालिटी का मिलता है। अतएव असली खाद्य सामग्री के नहीं मिलने से लोगों का स्वास्थ्य भी ठीक नदीं रहता । इसलिये देश मे श्रष्पतलों की एवं डाक्टरों की भरमार दिखाई देती दै। इसप्रकार जीवनोपयोगी असली चीजों का अभाव भी ढु ख का कारण माना गया है । अभिमान का दुःख ` शअमिमान भी कटै मकार के होते है, जात्याभिमान न थ छुलामिमान; धनामिमान, विद्यामिमान, योवनाभि- सान, अधिकाराभिमान आदि-आदिं। इन समी अभिमानो का मूल है देहाभिमान । अनात्म देदादिं मे आत्मत्व का अभिनिवेश दी अनेकं प्रकारके अभिमानो का सजन करता है, श्चौर अभिमान परिणाम में दुमो का दी कारणदहो जाताडहै। अभिमानी मानव, प्रेम एव विनय से हजारों कोस दूर रहता है । बद्द दूसरों को दण के समान तुच्छ समभकता है; एवं शपने को ही एकमात्र बढ़ा-चढ़ा सर्वोत्तम समकता है । इसलिये वह दूसरों से झपनी ही सेवा, सत्कार, प्रतिष्ठा, कराना चाहता है, परन्तु ह दूसरों की सेवा सत्कार प्रतिष्ठा करना पसन्द नहीं करता । वह्‌ पने मे अविद्यमान गुणो को बड़ाई अपने ही मुह से हॉका करता है, परन्तु दूसरों के विद्यमान गुणों की प्रशंसा करना तो दूर रहा किन्तु फूटी ओखों से देखना भी पसन्द नहदीं करता । इस प्रकार अभिमान मनुष्य के बडे भारी पत्तन का देव॒ होता है| वणचतुष्टय को क्या आवश्यकता है ? अआजकल कुछ न्यूलाइट के लोग कहते हैं कि आप ॐ सनातन धमं मे माने हये ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एव शुद्र इन चार वर्णे की अर्थात्‌ वर्सन्य- वस्था की क्या श्रावश्यकता है ! इससे देश एवं समाज का क्या अयोजन सिद्ध होता दै ? देश की भलाई के बदले इनसे बुराई ही सिद्ध होती दिखाई दे रददी है । ॐँच-नीच भाव, परस्पर धृणा, वैमनस्य, सगठन का अमाव, दूलबन्दी आदि अनेक दोष इससे सिद्ध हो रहे हैं। इसके दी कारण देश मे युलामी आयी, और करोड़ों की सख्या में यवन एन ईसाई हुये । पाकिस्तान बनने का, देश के इकडे होने का भी श्रेय इसी को है। इस श्रकार यहद चर्ख विभाग दी अनेकं अनर्थो की जड़ है, तव इसे क्यों माना जाय ? इससे देश की कुछ भी भलाई हेती 11 1




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