ध्वन्यालोक एक अध्ययन | Dhwanyalok Ek Adhyayan

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Dhwanyalok Ek Adhyayan by थानेशचन्द्र उप्रती -Thaneshchandra Uprati

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ११) का अभिव्यञ्जक है । परावाडः.मूलचक्रस्था पयन्ती नाभिसंस्थिता । हृदिस्था मध्यमा ज्ञेया वंखरी कण्ठदेगा ॥ वंख्यष्िकृती नादः परश्रवणगोचरः ! मध्यमा कृतो नादः स्फोटन्यञ्जक उच्यते । (वा० ब्र० का०) विनाल विद्व के प्रति जीव में अभिव्यक्त अनादि अक्षररूपा इस वाणी कीः थोड़े घव्दों में कहानी इस प्रकार है-- सक्रल कला सम्पन्न सच्चिदानन्दं परम विभु परमेदवर की जब अपने ही अन्तगंत लीन इस जगत्‌ के सुष्टि की इच्छा हई तो उसमें स्पन्दन हुआ, जिसे विन्दु कहते ह । यह्‌ स्पन्दन हीं परमेश्वर की गच्ति है ओर यह्‌ विन्दु, जिषे नाद कटति है यही नाद गदव्द-ब्रह्म है । अर्थात्‌ परमेदवर की शक्ति के विकसित रूप ये बिन्दु और नाद है-- सच्धिदानन्दविभवात्‌ सकलात्‌ परमेश्वरात्‌ । श्रासीच्छदितस्ततो विन्दुविन्दोनदि समुद्भवः ॥ यही सूक्ष्म नाद नामक गब्द-ब्रह्म पररावाणी केनामसे शास्रं मे वणित है । इसी परावाणी से अपरा-पदयन्ती मध्यमा एवं वैखरी वाणी की उत्पत्ति होती है। इसी सूक्ष्मा नादरूपा परावाणी का विर्वत्त यह जगत है । ऐसा दब्द देववादी आचायं भत्‌ हरि मानते है । जसा कि उन्दोने कहा है-- श्रनादिनिघन ब्रह्य शब्दतत्त्वं यदक्षरम्‌ । विवर्ततेऽ्थभावेन प्रक्रिया जगतो यतः ॥ अतः परानाद-रूपा क्रिया से उत्तरोत्तर वंखरी रूप में भभिव्यक्त यह ध्वनि ही नदद । यही अर्थं का अभिव्यञ्जक होने से स्फोट दै वस वैय्याकरणो ने केवल इसी अभिव्यञ्जक राब्द के लिए व्वनि शव्द क प्रयोग किया है । इसी अभिव्यल्जकत्व के सादृदय ते पुनः काव्यतच्ननों ने, (जिनमे अनन्दवर्धनाचयं प्रमुख भी सम्मि- लित है) केवल अभिव्यञ्जक -णव्द मेही ध्वनि शव्द का व्यवहार नहीं किया, अपितु दाव्द, अथं, व्यञ्जना व्यापार, व्यड.ग्याथं प्रघान काव्य, इन सवको घ्वनि गव्द से कहा है। जिसकी व्युत्पत्ति दस प्रकार है-- ध्वनति, ध्वन्यत वा धः सः, व्यञ्जकः शच्द., अर्थक्च ध्वनिः । ध्वन्यते अनेनेति शब्दार्थयः व्यञ्जना व्यापारोऽपि ध्वनिः । ध्वन्यते इति व्यडः ग्यरसादिर- लंकार वस्तु च ध्वनिः ध्वन्यते श्रस्मिन्‌ इति ध्वनिः काव्यम्‌ । इस प्रकार ध्वनि णब्द का प्रयोग पॉच भिन्न-भिन्न परन्तु परस्पर सम्बद्ध, अर्या मे हृजा है--




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