विधवा | Vidhwaa

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Vidhwaa by प्रियम्बदा देवी - Priyambada Devi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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| विधवकी झात्मकथा ला टन ही कड़ पड़ा और जंगली-पशुओं या पथिकोंके पेरोंसे रॉद दिया गया ? हाँ, लोगोंने-समाजके सिरधरुओंने और झाधिकार प्रप्र समा जके सुख्याति-मरे ढोलमें पोल रखनेवाले झाडम्बरबाज़ोंने रोंद देना तो अवय चाहा था, उनकी इच्छा अवदय थी, छ इसे इस तरह मसल दिया जाये, जिस तरह निद्य बालक गुन्नावकी पैँखड़ियोंको तोड़ मरोड़कर फंकता और फिर उन्हें बटोरकर हाथसे ओर चुटकियोंसे मसल डालता है। पर उस लीलामयकों लीलाको कौन जानता है । मैं वची और खूब बचो । ओर शायद इसीलिये बची, कि आज झपनों दुःख -दर्दू- मरी आत्मकथा आपलोगोंको सुनाऊँ श्र दिखा दूर कि जिस जातिके शास्त्रकार डंकेकी चोट बता रहे हैं; कि “यत्र नाय॑स्तु पृज्यंते, रमंते तन्र देवता: उसी जातिमें, उसी शास्त्र वचनको माननेवाल समाजमे, आज नारो-जातिको क्या ्रवस्था हो रह है अर आज नारी-जाति छिस तरह पद्‌-पद्‌- पर अपमानित और लांछित हो रही है 1 ऐ' ! नारीको रत्न कहा है-हाय हिन्दूसमाज ! क्या इस रत्नका यों ही झ्ादर होता है? क्या रत्न इसी तरह पेरोंसे ठुकराया जाता है ? क्या रत्न-लक्ष्मीेका इसी तरह सम्मान किया जाता है! में सय कहती हूं, कि श्राज इस रत्नका अपमान करनेके कारण ही इस देशकी लक्ष्मी सात समुद्र पार जा चसौ है, अज नासे.रत्रकी दुर्दशाके कारण हो देशम अनाचार,




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