श्री भागवत दर्शन भागवती कथा भाग - 31 | Shri Bhagawat Darshan Bhagavati Katha Bhag - 31

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Shri Bhagawat Darshan Bhagavati Katha Bhag - 31  by श्रीप्रभुदत्तजी ब्रह्मचारी - Shree Prabhu Duttji Brhmachari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जगल्नननों जानकीजी का भू प्रवेश १३ अतः वे पवन तनय से वोले--झजनीनन्दवद्धन हनुमानजी ! शाप उस बच्चे पर दया न करें । बह तो बड़ा भयानक प्रतीत होता हे । आप उसे अपनी गदा से मार डालें ।” शयुघ्रजी च्छ राज्ञा पाकर हनुमानजी वड़े वेग से उछलते कूदते किल-किल शब्द करते हृ लव के समीप गये | जाते ही “उन्होंने पर्वत के शिखरे से चडे ° दृत्तं से सव पर प्रहार करना आरम्भ किया ! वे चे-उचे फल फृले एतो को जड से उसाडते ध्रौर लव के सिर मे दे मारते । लव भी उन्हें लब मात्र मे अपने दिव्य वाणो से काट कर गिरय देते । इस प्रकार वहुत देर तक भीपण्‌ युद्ध दाता रदा । अन्त में हनुमान्‌ जी भी उसके दुस्सह श्रह्मरो को न सह सकने के कारण मूर्छित होकर भूमि पर गिर गये। शयुनजी नै जच पचन तनय कै मूर्धत होने का पृत्तान्त सुना, तो उनका पैये छूट गया 1 वे तुरन्त दी श्रल्र शस्ना से सुसन्नित हाकर समर भूमि में आये । उन्होंने देखा सिंह सावक के समान सनिक चेष मे वीरवर लव खडे हे खरौर सेना के शाने की प्रतीक्ता कर रै ह, तो शत्रुत्रजी को परम विस्मय हुमा ! वन्ये को टेखङर वं समम गये यह्‌ प्रीरामचन्द्रजा का ही पुर हे। जिस समय में रवण की सारने जा रहा था, उस समय भगवती सीता ने दो पुर को प्रसव किया था । अब सक उनको इतना बड़ हो जासा चाहिए । इसका आऊति, प्ररुति, चलन चितवन सब श्रीरामचन्द्रजी फे हा ममन दहै, किन्तु यद्‌ तो केलः ही हे ! शतु बनकर समर मे सम्युख खडा हे । इस पर व्या कैसे की जा सकती हू । चाहे छपना षितासगा पिता दी क्यो न हो क्षत्रिय युद्ध मे उसके सम्सुख भी सिर नहीं भुकादा । पिता पुन के साथ, भाई भाई के साथ युद्ध करता दे । यही सब सोचकर वे वडे सह सै बोले-- वीस्वर ! तुम कौन हो ? क्सि वश में तुम्हारा जन्म हुआ हे । कर




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