मराठी का भक्ति साहित्य | Marathi Ka Bhakti Sahitya (1959)

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Marathi Ka Bhakti Sahitya (1959) by भी. गो. देशपांडे - Bhee. Go. Deshpande

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ४ ) कान्य-धारा पृष्ट की । इस पन्थ के विद्वान्‌ लेखको ने अपने पन्‍्थ का तत्वश्ञान गधग्रंथों में विवेचित कर मराठी की गद्यधारा का श्रीगणेश किया । सन्‌ १२९० में सन्त ज्ञानेश्वर ने भगवद्गीता जैसे सबंमान्य संस्कृत ग्रन्थ पर मराठी में भावार्थदीपिका अथवा ज्ञानेश्वरी नामक कान्यमय टीका रचकर संस्कृत भाषा के दुराग्रह्ी समथेकों को बता दिया कि मराठी भाषा में भी बेसी दो प्रौढ़ता, कोमलता, सरसता, लचीलापन और अर्थ वहन करने की क्षमता है । मददानुमावों के प्रबन्घकाव्य और ज्ञानेश्वरी द्वारा नवोदित मराठी भाषा का इतना तेजोमय परिष्कार हुआ कि उसके विरोधी चका्चौध में पढ़ गए । सन्त ज्ञानेश्वर ने अपने वारकरी या भागवत सम्प्रदाय के प्रचार के लिए सरस अभंगों की रचना की जिससे उसकी लोकप्रियता तत्काल बढ़ी और अभंगकाव्य ने लोकसाहित्य का व्यापक रूप धारण किया । वारकरी पन्‍्थ में सब वर्णो णवं जातियों के सन्त सम्मिलित थे । इनमें ज्ञानेश्वर, नामदेव, निवृत्तिनाथ, सोपानदेव, मुक्ताबाई, जनाबाई, सेनान्दाई, गोरा कुम्हार, सावता मारी, नरहरी सोनार, चोखामैला पेड, बाकी धेडिन, इत्यादि प्रमुख सन्त कवि और कवयित्रियाँ थीं । इन्होंने फुटकर अभंगों में आध्यात्मिक एवं भक्ति- रसभीनी रचना कर जन-समाज को अपनी ओर आकर्षित किया । जहाँ महानुभाव पन्थ के सादित्यिकों की टीकाएँ और रचनाएं अल्पसंख्यक विद्वानों के लिए थीं ब्दाँ वारकरी संप्रदाय के संत कवियों की टोकाएँ और अभंग-रचनाएँ बहुसंख्यक व्यक्तियों के लिए हुई । वारकरी संप्रदाय के संत कवियों ने अपने जातीय व्यवसाय से संबंध रखने- बाले समुचित रूपक, उपमाएँ, उत्प्रेक्षा, दृष्टांत इत्यादि अलंकारों की योजना कर अपना स्फुट काव्य बहुत लोकप्रिय बनाया । इन अभंगों में जह्मानुभूति, रदस्यवाद, निगुंण-सगुण, मधघुराभक्ति इत्यादि सब धाराओं का सामंजस्य है जिसका विस्तृत विवेचन हम आगे करेंगे । इसके अतिरिक्त कई संतों ने अपनी टूटी-फूटी दिंदी भाषा में अभंग और पदों की रचना कर अपनी लोकमंगल-भावना का अच्छा परिचय दिया । संक्षेप में इस काल- खंड में मद्दानु भाव-पंथ के व्युत्पन्न तथा प्रतिमाशाली कवियों ने मराठी शारदा पर कौशल्युक्त अलंकारों का साज चढ़ाया तो वारकरी संप्रदाय के संत कवियों ने भक्तिरस का आकंठ पान कराकर उसे अमर बनाया । द्वितीय काछखंड ( १३५० से १६५० ):--इस काल-विभाग के प्रमुख कवि हैं संत एकनाथ, दासोपंतः शिवकलव्याण, कृष्णदाप्त मुद्रल, फादर स्टीफन्स, मुक्तेश्वर भौर संत पुकाराम । यह वारकरी संप्रदाय और उसके साहित्य के उत्कष का काल है । इस संप्रदाय के चार प्रमुख संतों में संत शानेश्वर और संत नामदेव का पदले खंड में आविर्भाव हुआ




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