कौटल्य कालीन भारत | Kautalya Kalin Bharat

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Kautalya Kalin Bharat by आचार्य दीपकर - Acharya Deepakar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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एक विवेचना -७- प्रतीत होता दै कि अथंशास्त्र एसे समय मे लिखा गया है जब उत्तर भारतवाली का दक्षिण भारत से कोई सम्बन्व नही रहा होगा और यह समय अशोक की मृत्यु के उपरान्त कम से कम दो सो वष॑ बाद का हो सकता है । यह तकं सारहीन है । एक बार दक्षिण की विजय और अखण्ड मारतीय साम्राज्य की स्थापना हो जाने के बाद मी तथा दक्षिणी भारत से किसी केन्द्रीय प्रशासन के उठ जाने पर भी वहाँ के आर्थिक, सामाजिक एव सास्कृतिक सम्बस्ध नष्ट नहीं हो सके। फिर मनुकाल से लेकर और कौटल्य के बहुत दिनो बाद तक भी परम्परागत रूप मे आर्यो के लिए आर्यावितं ही सहस्रो वर्षो तक आचार- विचार के लिए अनुकरणीय माना जाता रहा है, जैसा कि मनु ने कहा है। इसके अलावा, पुरे साम्राज्य के लिए सामान्य प्रशासन सम्बन्धी नियम बताते हुए मी विस्तार के साथ उसके केन्द्रीय माग की विवेचना करना एव उससे उदाहरण देना अर्थं शास्त्र के लिए परम स्वामाविक है। २ कौटल्य कालीन मारत की आर्थिक, सामाजिक ओर राजनीतिक स्थिति का पता लगाने एव उमके समय का निश्चय करने मे पहले प्राचीनं मारतं के इतिहास को विशेष अवस्थाओ की विवेचना करना परम अनिवार्य हो जाता है। केवल उसी से सब प्रश्नो का समाघान होना समव है। वास्तव मे देखा जाय तो प्राचीन भारत की सभ्यता और सस्कृतियो के विकास का इतिहास धर्मो के विकाम एवं उनके विभिन्न रूपों के सामने आने की परम्परा का इतिहास है। प्रत्येक अवस्था या युग मे घम बदलते गये, वे समाज पर अपनी छाप छोडते गये) नये घर्मो के साथ पुराने धर्मो की कछ मान्यताओ के अनवरत सधषं तथा समन्वय का इतिहास ही प्राचीन भारत के इतिहास की मुख्य घुरी है! धर्मो के विकास का यह रूप आमतौर पर इतना जनवादी होता था किं किसी पुराने रूपके हट जाने या चले जाने ओौर नये रूष के सामने आ जाने कौ बडी घटना का समाज को कमी-कभी आमास तक नरी होता था ओर बहुत कस ऐसे अवसर आते थे जब धर्मं के विभिन्न रूपों मे जमकर तथा खुला




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