विवाहसंस्कार भाषाटीका | Vivahasanskar Bhashatika

Vivahasanskar Bhashatika by स्वामी दयानन्द सरस्वती - Swami Dayananda Saraswati

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ६१ ओर वर पन्न का एक पुरुष शुद्ध व्र धारण कर शुध जल से पूरण पक कलश को ले के यज्ञकुण्ड की परिक्रमा कर कुण्ड के दक्षिण भाग में उत्तराभिमुख हो कलश स्थापन कर जबतक विवाह का कृत्य पूर्ण नहीं जाय तब तक बंठा रहे । आर उसी प्रकार वर के पक्का दूसरा पुरुष हाथ में दण्ड ले के कुण्ड के दक्षिण भागम कयं समाति पयन्त उन्तरामिपुख बडा रटे आर वध का सद्टोद्र भाइं अथवा सहो- दरन ही तो चचरा भाद मामा का पुत्र अथवामासीका लड़का हो ५८७० 4 क 18 वष्ट चावल वा जवार को घाणौ (एदि) आर शमी वृत्त कफे पत्ते श्न सूप में रख के घाणी सश्ित सूप ले के यज्ञकुण्ड के पशिचम भागसर पूवांभिपुख बेटा रहे । फिर कारयकत्ता पक सपाट शिल। जो कि सुन्दर (चीकनी दौ उस कों तथा वधर आर वरको कुण्ड के समीप बेठाने के लिए. दो छुशासन वा यज्षिय तुणासन अथवा यशिय वृत्त की छाल के जो कि प्रथम से सिद्ध कर रक्‍खे हो उन आसना को रख चावे । तत्पश्चात्‌ वख धारण की इई कन्या को कार्थेकत्ता घर के सन्मुख लाये जर उस समय वर आर कन्या यह मन्त्र उच्चारण करें । पति मन्त्र बोलें । ओं समञ्जन्तु विशे देवाः समापो हृदयानि नो । सं मातरिश्वा स धाता समुदेष्टी दधातु नो ॥१॥ च अधै-वर, हे इस यज्ञशाला मै चे हए विद्धान्‌ लोगों भाष निदचय करके जानें कि इम अपनी प्रसन्नता पूवक गाश्चमसे पकत्र रहने के लिए पक दुसरे को स्वीकार करते हैं। कि मरि हदय जल के समान शान्त ओर मिले हुए रहेंगे जसे प्राणवायु इम को प्रिय; द वेते इम दोनों करके दूसरे से सदा प्रसन्न रहेंगे जञसे धारण करने हारा परमासमा सब त्रै मिला हमा ह सब जगत्‌ धारण करता हे




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