चरचाशतक | Charchashatak
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
168
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)(९)
या ध्य ठोक नम तीन विध,
अकृत अमिट .अनईसरौ ।
अविचट अनादि अनंत सव,
भास्यो श्रीञदीखरो ॥ ६ ॥
थ~श्रीअदीश्वर मगवानने अथात् पिर तीथकर
आकपभदेवने लोक अरोकका स्वरूप इस प्रकार कदा हे-
जलोकाकाश अचल है, अनादि कारसे है, अनन्त काठ-
तक रहेगा, अरत है अर्थात् उसे किसी ब्रह्मा आदि इंश्वरने
नहीं बनाया हे-स्वयंसिद्ध है, अनमिट है अथात् कोई
महादेवादि उसका संदार नहीं कर सकते हैं-मिटा नहीं
सकते हैं, अखंड है, सर्वत्र फेला है, निर है, अजीव है
अथात् चेतना रदित जड है, अमूतीक दै, उसमे जीव, पुद्रल,
धमे, अधमे ओर कारु ये पाच द्रव्य नदी ह, भार त्रिकोणा
आदि किसी प्रकारका उसका आक्रार नहीं हे, विकाररहितः
झुद्ध द्रव्य हे, अनन्तानन्त प्रदेशोंसे शोभित है, शुद्ध है,
अवगाहना वा स्थान देना यह जिसका असाधारण गुण है,
ओर जिसका नीचे ऊपर पूवं पथिम.आदि दर्शो दिशामि
कभी अन्त नहीं आता हैं । इस महान ' अठाकाकाशक,
_ चीचों बीच लोकाकाश हैं, जो ऊध्वेठोक, . मध्यठोक और
अधोलोकके भेदसे तीन प्रकारका है । इस लोकको भी
किसीने रचा नहीं है, कोई मिटा नहीं सकता है, कोई इसका
स्वामी नहीं हे, अचरु है, अनादि ह ओर अनन्त भी है ।
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