कवित्त - रत्नाकर | Kavitt - Ratnakar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका अधिक मिलता है । कवि ने रुचि के ्रतुसार नायिकाओं के कुछ मेदों को चुन कर उन पर थोडे से कवित्त लिखे ह । श्रवस्या की दृष्टि से “मुग्धा” पर कुछ छद प्रात दोते हैं और उनमें मे दो एक श्रत्यत सुन्दर वन पढे हैं-- „~ लोचन जुगल थोरे थोारे से चपल, सो सामा सन्द पचन चलत जलजात की | पीत है कपोल, तद्ये श्या घरुनाई नई, ताहो दति करि सचि श्राभा पात पातकी ॥ सेनापति काम भूप सोचत सो जागत है, उञ्वल विमल दुति पै गात गात की । सेसव-निसा श्रथांत जोवन दिन उदौत, बीच वाल दधु कौ; पाद परभात्त की * 1) “काम भूप सोवत सो जागत है” कद कर वयःसधि को वडी ही उन्त- मता से व्यजित किया गया है, साथ ही प्रभात के रूपक के विचार से भी वह नितात उपयुक्त है । 'खडिता” के वणुनों में कुछ कवियों ने महावर झ्रादि के वणन के साय साय दत चत, नख चत श्रादि का वणंन भी वडे समारोह के साथ किया दै । सेनायाति ने भी एक कवित्त में ऐसी ही तत्कालीन अभिरुचि का परिचय दिया है-- विन ष्टी जिर€, दयियार विन ताके श्रव) भूलि मति जाह सेनापति समा हौ । करि टारी छाती घोर वादन से राती राती सोहि धो वतावाकोन भोतिदुटिश्राषएुष्टौ। पौद़ौ वलि सेज, करौ श्रौपद की रेज वेगि, म तुम जियत पुरधिल्ते पुन्य पाए हो । कीने कान हाल | वह वाधिनि दै वाल | ताहि कोसति हों लाल जिन फारि फारि खाए ष्टौ? कहाँ तो श््द्वार रस के ग्रालवन विभाव का वणन श्र कहाँ 'वाघिनि १ दूसरी तरय, छद २६ + > दूरी परग, छद ३२५ [ £ |




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