कविता - कौमुदी | Kavita Kaumudi

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Kavita Kaumudi by रामनरेश त्रिपाठी - Ramnaresh Tripathi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ७ ) न्जभाषा के कवियों के भाषाः के सम्बन्ध में . जितनी स्वतंत्रता थी; हिन्दी के कबियों ,.को उसको .चे। थाई भी नहीं । व्रजभाषा का कवि अपनी आवश्यकता के अचुसार शब्दों को तोड़ मरोड़ कर सड़क तैयार कर लेता है! आवकश्यकता- जुसार कंकड़ पत्थर को काट छोर कर वह सहज में ही उन जमा देता है । उसपर उसके भावों से लदा छुआ छकड़ा आसानी से चल निकलता है । वह आनन्द का आनंद, अनेद ओर अनन्दा कर सकता है, तुलसीदास ने गरीषनेवाज्ञ3 को गरीवनिवाज कर ऊ पराई चीज्ञ के भी अपने साँचे में ढाल लिया, खाता है के खात, गाता है का गावत और अंक के ओक, निःशंक के निसाँक, ओर बंक के बाँक कर सकता है । कारकों का परयोय मी बह मनमाना कर लिया करता है । उसे बड़ी, स्वतंत्रता है, किन्तु हिन्दी-कवियों को रेखा सौभाग्य नहों घाप्त है । उनके सामने बड़ा बंघन है। जो रोड़ा जैसा है, उसे वैसा हो-बिना काट छाँट किये जमाना पड़ता है । उसे जरा भर भो तराश खराश करने का उसे अधिकार नहीं । वह आनंद को आनंद भी नदहों कर सकता जाओगे को जावगे भी नहीं बना सकता । उसके आस पास की ज़मीन बड़ी ऊबड़ खाबड़ है । उसी में से होकर उसका सँकरा रास्ता; इससे वह अपने छकड़े पर थोडा थेड़ा माङ लादू कर लाता है । बताइये, कैसी मुसीबत है । जितना मा ब्रज़भाषा का कवि एक बार में ठाता है, हिन्दी का कवि उसे चार बार में । प्राहकां को उसके लिये बहुत देर तक इन्तज़ार: करनी प्रड़ती है । उदू कवियों ने इस तकलीफ के समझा है, उन्होंने कुछ उद्दंडता से काम भी लिया है । आवश्यकता पड़ने पर उन्होंने अपना नियमित मागं छोड कर इधर उधर:




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