बच्चन रचनावली भाग - 9 | Bacchan Rachanawali Bhag - 9

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Bacchan Rachanawali Bhag - 9 by अजितकुमार - Ajitkumar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जो न सुन सके वह किताबें मँंगवा-मँंगवाकर इसका आनन्द लेते गये। मुझे अपनी ` विजय ही दिखायी पड़ी । मैंने 'मघुशाला' को सुनकर अपने प्रेमियों और अपने विरोधियों दोनों को साथ-साथ झूमते देखा है। इसमें कहाँ तक मेरी कविता सहायक थी और कहाँ तक मेरा स्वर इसे मैं नहीं कह सकता । ` त कविता में रुचि उत्पन्न होने पर कवि भें रुचि उत्पन्न होना स्वाभाविक ही था । बच्चन कौन है ? क्या करता है ? उसका चरित्र कंसा है ? शराब पीता है या नहीं ? आदि-आदि प्रश्न लोगों के मन में उठने लगे। इस परिचय के नाम पर लोगों को कुछ भी न मिला | ही हिन्दी का कवि, चाहे उसकी रचना सर्वप्रथम ही क्‍यों न हो अपना चित्र साथ में देने हि बड़ा शौकीन होता है। यहाँ रचना के साथ चित्र भी न था । अब मेरे विषय में लोगों + कल्पनाएँ आरम्भ कीं। वच्चनं खब शराब पीता होगा, बिना पिये ऐसे अनुभवों को भला कौन लिख सकता है, पीते तो देखा नहीं गया, चुपके-चुपके घर के अन्दर पीता होगा। कुछ लोगों ने कहना शुरू किया, मै बच्चन को जानता हूं, वह्‌ बड़ा शराबी है, अपने बापकी सारी जायदाद उसने शराब मे उड़? दी, दिन-रात पिये पड़ा रहता है, उसके माँ-बाप, घरवाले उससे परेशान है । ऐसी कहानियाँ बनानेवालों में प्रायः वे लोग थे जिनसे मेरा परिचय भी न था । एक ऐसे कहानी बनानेवाले से मेरी भेंट भी हुई थी पर सामने आने पर उन्हें लज्जा से अपना सिर नीचा करना पड़ा । मेरे अनेक हितु, मित्रों ने ऐसी किवदन्तियाँ सुनीं और जहाँ कर सके उन्होंने इसका प्रतिवाद किया, पर मैंने इन कहानियों में अपनी कविता की सफलता देखी । सब होते हुए भी लोगों में मधघुशाला के लिए प्यास बनी ही रही। मैं लोगों के लिए एक रहस्य बना हुआ हूं --इसमें भी मेरा अभिमान कुछ-त-कुछ सन्तुष्ट होता रहा । नये स्थानों पर जाने पर कई व्यक्तियों ने मुझसे कहा --हम तो आपको बुजगं-सा समक्षते थे, आप तौ अभी बच्चन ही हैं । क ` आजभीलोगोंके मनम यहुप्रष्नदहैकिमेरेजीवनमे शराब काक्या स्थान है? पहले तो मै यह कहं देना चाहता हं कि भमधुशाला' के पूवं कौ मेरी सारी अप्रकाशित रचना में मदिरा का नाम तक नहीं है। बाद के भी तीन संग्रह _ 'मघुकलश', 'निशा निमन्त्रण' और एकान्त संगीत में मधु की चर्चा नहीं के बराबर है मेरे उतने समय की रचनाओं मे भी मधु सम्बन्धी रचनाओं का अनुपात इतना कम है कि उससे मेरे जीवन भौर मदिरा से कोई अनिवार्यं सम्बन्ध की खोज करना व्यथं है । मैने मधुपान का व्यसन डालकर उसका धमं प्रचारित करने को मधुशाला नहीं लिली है । लोगो के मानसिक कौतूहल को सन्तुष्ट करने को आज मँ पहली बार जनता के सामने यह बात रख रहा हूँ कि 'मधुशाला' लिखने के काल तक ओर उसके पाँच वर्ष बाद तक जबकि मैं 'मघुदाला' नगर-नगर में सुनाता फिरता था, मैंने मदिरा की एक बूँद भी न चखी थी, उसका रंग कसा होता है, मुझे नहीं ज्ञात था, मैंने लोगों को शराब की बोतल खोलते और पीते भी नहीं देवाथा । जब ` एक श्रेणी के समालोचकों ने मुझसे यह कहा था कि तुम्हारी कविता का यह प्रभाव हो रहा है कि लोगों में मदिरापान की रुचि बढ़ती जाती है तो मैंने यही उत्तर दिया था कि, मधुशाला' मे एेसी बात है तो इसका असर सबसे पहले मुझ पर होना चाहिए था और जब मैं 'मघुशाला' लिखकर, पढ़कर, वु मदिराकीमोर ` आकृष्ट नहीं हुआ तो मदिरा की गोर अष्कृष्ट होनेवालों की कोई और कमजोरी होगी, मेरी 'मधघुशाला' नहीं। मैं ऐसे लोगों से कहा करता था कि मने तुम्हें कविता न कीमदिरादीहै,मदिराकीक्वितानही! ..... .....




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