पञ्च - प्रतिक्रमण | Panch-pratikraman

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
श्रेणी :
Panch-pratikraman by पण्डित काशीनाथ जी जैन - Pandit Kashinath Ji Jain

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about पण्डित काशीनाथ जी जैन - Pandit Kashinath Ji Jain

Add Infomation AboutPandit Kashinath Ji Jain

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
प्रतिक्मण-सूत्र } च 'ज्ञावणिज्ञाए' शक्ति के अनुसार वदिड ` वन्द्न करना श्च्छामिः चा्ता हः ( सौर ) मव्थपण, मस्तक से र्वदामिः चन्दन करता ट} भावार्थं _ दे क्षमाशील शुरो ! मैं अन्य सय कामों को छोड कर शक्ति के अनुसार आपको वन्द करना चाहता ह मीर उसके अनुसार सिर खुका कर चन्दन करता हुँ । ४--सुगुर को सुख-शाता-एच्छा । इच्छकारी सुहराई सुह-देवसि सुख-तप शरीर निरावाध सुख-संजम-यात्रा निर्वहते हो जी । स्वा- मिन्‌ । शाता है १ आहार पानी का लाभ देना जी । भावार्थ- मै समण्डा ह कि आपकी रात सु-पूरवंक वीती होगी, दिन भी खुख-पूर्वफ घीता होगा, भप फी तपश्चर्या सु पूर्वक पूर्ण हुई दोगी, आपके शरीर को किसी तरद की वाधा न हुई होगी सौर इससे खाप सयम याचा का अच्छी तर्द निर्वाद करते होगे । हि स्वामिन्‌! कुशल है? मय में प्रार्थना करता कि व्याप आहार पानी लेकर मुभ् फो धर्मलाम देवे । ५--अब्सुट्रिओ ८ गुरु-क्ामणा ) सूत्र । † इच्छाकारेण संदिसह भगवन्‌ ! अव्भुषटि्ो ह॑ अन्मितर-देवसिच्ं खामेडं । ऋन्वयाथ-- मद मैं 'अर्मितरदेवसिम' दिन फे अन्दर न. इच्छाकोरेश सदिसद भगदन्‌ ' 'यम्युन्यितोडदमाभ्यस्तरदेगसिक क्षमयितुम्‌ |




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now