मेरी मुख्य स्थापनाएं | Meri Mukhya Sthapnayein

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Meri Mukhya Sthapnayein by श्री दीनानाथ 'शरण' - Shree Dinanath 'Sharan'

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १३ } + परम्पस भी रही ।”* “छायावाद ने मनुष्य के हृदय और प्रकृति के उस सम्बन्ध में प्राण डाल दिए जो प्राचीन काल से बिस्वनप्रतिविस्वर के रूप में चला आ रहा था और जिसके कार्ण मनुष्य को अपने दु ख में प्रति उदास और सुख में पु्कित जान पड़ती थी |” * (२१) श्री सुमित्रानन्दन 'पत्त' : द्विवेदी युग वी तुलना में छायावादि इसलिए आधुनिक था कि उसके सदयं वीव और कत्पना में पाइचान्य साहित्य का पर्याप्त प्रभाव बड यया था और उनका भाव-शरीरः द्विवेदी युके वाय्य वी परम्परामते सामाजिवत्ता से पृथक हो गया था । पिस्तु वह नये युग की मामाजिवत्ता और विचारधारा का समावेभ नहीं वर सका था । उसमें व्यावसायिक जान्ति और विवासवाद के बाद का भावना वे भव तो था, पर महायुद्ध के बाद की 'अन्स- वर्त्र की धारणा (वास्तविकता) नही आई थी | उसके 'हासअश्रु आशाजाक्षा' 'खाद्यमधु पानी” सही बने थे | इसलिए एक ओर बह निगूढ, रहस्यात्मक, भावप्रधान, ओर वंयक्तिक हो गया, दूसरी भर कंवल टेवनिव और मावरण मात्र रह गया । दूसरे याब्दों में नवीन सामाजिक जीवन की वास्तविकता को ग्रहण कर सकने के पहले, हिन्दी वविता, छायावाद के रूप में हास युग के दपव्तिक अनुभवों, ऊध्वंमुखी विकास की प्रवृत्तियो, ऐहिक जीवन की कावक्षाओ सम्बन्धी स्वप्तो, निराशाओ और सवेदनाओ को अभिव्यवत फरने लगी, और व्पक्तिगत जीवन सवयं कौ कठिनाइयों से शुब्ध होकर, पलापनवाद के रूप में, प्राकृतिन दर्शन के सिंद्धा्तों के आधार पर, भीतर-वाहर मे, सुख दु ख मे, आशा-मिराझा और समोग-वियोग के द्वग्दो मे स!मजस्य स्यापित्त करने लगी |” 3 ऊपर के उदाहरणो से यह स्पप्ट पता चलता है कि छाय।वांद हिन्दी के आलोचकों के चीच बहुत दिनो तक काफी मतभेद का विषय रहा | छायावाद के सम्बन्ध में हिन्दी के विचारको के विचार प्राय: एक से नही हैं। विसी ने छ्यावाद का अर्थ (अस्पष्टता से लिया, रिसी ने आत्मा में परमात्मा को छाया और किसी मे “प्रकृति में आत्मा की छाया 1 छापा. वाद रहस्यवाद नहीं है जेंसा कि शुर्ल जी और डॉ० रामकुमार वर्मा मानते हैं ।* और छायावाद न तो केवल अभिव्यजना क्षो शली विदोप है अथवा सात अभिव्यजना-चमत्कार, हो, जेसा कि शुश्लजी, प्री विनयमोहन दार्मा और श्री सद्गुरशरण अवस्थी का भत है।५ छायावाद में अभिव्यजना की विशेष शंनो है, रहस्य-भावना भी, अतमुखी प्रवृत्ति, आत्मनिष्ठता ओर पलायनवाद है. द्विवेदी युग की इतिवृत्तात्मकता के विरुद्ध सिदोह भी 1 छायावादं प्रकृति मे मानद भावो का प्रतिथयिब देखता है, भर साथ ही विदव को किसी वस्तु में १--घुनिक कि -- 9 | श्पने दृष्टिकोश से) : मददादेयी वर्मा र-य मा: मद्दादेवी वर्मा ६-घाधुनि मदि - २ { प्याजोचन ) ; सुमिनानन्दन पंठ; प्ष्ठ ३७--शप %--पाुत पुर छा द्वोयद्ष्द्‌ पनीर रदस्ययाद्‌ निवंध पष्‌ अन्न्देखिए हिस्दी काव्य मैं छायाबाइ--दीनानाय सशरण'] पट ७३ ७४




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