कठोपनिषद् | Kathornishad

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Kathornishad by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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छ कठोपनिषद्‌ ग > वनयो न> च > न> > ग जद नव नया > य बाय योगादभिष्रिधाप्युषनिषदिस्यु- च्यते । तथा च वक्ष्यति-“खग- लोका अमृतत्वं भजन्ते ( क० उ० १।१।१२) इत्यादि। ननु॒ चोपनिषच्छब्देनाध्ये- तारो ग्रन्थमप्यभिटपन्ति । उप- निषदमधीमहेऽध्प्रापयापम इति च। एवं नेष दोषोऽतरिद्यादिमंसार- हेतुबिशरणादेः मदिधाच्वथस । ग्रन्थमात्रेऽसम्भवाद्विद्यायां च सम्भवात्‌ । ग्रन्थखापि तादर्थ्येन तच्छब्दन्वोपपत्तेः, आयुं घृतम्‌ । इत्यादिवत्‌ । खख्यया वृत्योपनिषच्छब्दो वर्तते ग्रन्े तु भक्त्येति । एवमुपनिपल्निवचने नेव विदि- छोज्धिकारी विद्यायामुक्त* । विष- तसादियायां | ~ | अर्भके योगसे उपनिषद कही जाती है । “खर्गटोकको प्राप्त होने- वाटे पुरुप अमरत्व प्राप्न करत है ऐसा आगे कहेंगे भी । शडज्ञा-किन्तु अध्ययन करने- वाले तो “उपनिपद्‌' शब्दसे श्रन्थ- का भी उछेख करते हैं, जैेसे--'हम उपनिपद्‌ पढ़ते हैं अथवा पदात है” इत्यादि । समाधान-ऐसा कहना भी दोपयुक्त नही है । संसारके हेतु भूत अविद्या आदिके चिशरण आदि, जो कि सद्‌ धातुके अर्थ है ग्रन्थमात्रमें तो. सम्भव नहीं है किन्तु विद्याम सम्मव हो सकते है । अ्न्थ भी विद्याके ही छिये है; इसलिये वह भी उस झाब्दसे कहा जा सकता है; जेसे [ आयुब्नद्धिम उपयोगी होनेके कारण ] श्वत आयु ही है” ऐसा कहा जाता है। इसलिये उपनिषद्‌ शब्द विदामे मुख्य वृत्तिसे प्रयुक्त होता है तथा ग्रन्थमें गौणी इत्तिसे । इस प्रकार उपनिषद्‌” शब्दका निर्वचन करनेसे ही विद्याका विशिष्ट अधिकारी बतला दिया गया। यश्च विशिष्ट उक्तो विद्यायाः परं ' तथा विदयाका प्रत्यगासखरूप प्र-




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