वैदिकसर्वस्व | Vaidiksarvasva

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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विशवेषाइ । १३ था जित्त के पौरे मानो घोडा की चच्चस्ता कौ रोकनेवाटी अद्भुत रमाम का काम देनेवारी उयन्तिपूर्ण मजनों की साती हुई राच साहव भरी सेढ रङ्गनाथ जी के श्रीवेङ्कटेश्वर ग्रेस की मजनमण्डली चरु रदी थी | मजनमण्डकी के पि सोने चादौ के अनेक आशावछभः शण्डो जर पताकां की कतारं चटरदीं थीं ओर अनाथस्य के बाठकों का सनाथविगुर बजरहा था जीर मानों ससार से कह रहा था कि माज हम राजनीतिक दत्र म मठे हयी अनाथ मने जोय किन्तु हम भारतवासियें का यह्‌ धार्मिक सनाथ विगुर फिर भी स्वतन््रूप से वज रहा है और जिस का जी चि अपने वरु की परीक्षा कले कै स्थि सामने अजाय । हम फिर भी उसे शान्तिपाठ पढाकर ऐसा बनार्देगे कि यह कहेगा कि-- ** ज्बर इव सदी से व्यपगतः आर मारत के प्रति कृतशता मकट कर कृतकृत्य हुए विना न रहेगा । इन अनाथ वारको के विगुरु के पीछे दक्षिणमारत--मद्रास्की मनोहर शदनाई ओर नायसुनि वैण्ड इतनी ख॒न्दरं जर मनोदारिणी ध्वनिं से बज्तेथेकिउन के शब्दार्थ को नम जाननेवाङे भगवद्वत जन भी ऐसे मुग्ध हो रहे थे कि जिनको देख कर मगमोहन की कल्पना स्मरण शाजाती थी ।. उक्त बैण्ड के पीछे दक्षिण और उत्तर भारत के विदानो की मण्डली ओर आचायौ एव श्रीविप्णवों से परिवेषटित वह तपोमूर्तिं वह मुम्बई को छत्ताथ करनेवारी परब्रह्म परमात्मा की शक्ति और हृदय में संदेव ध्यान करने योग्य अनुपम आनार्यचरण जगदूयुरु ३००८ श्री काशी तिवादिभयक्षर मठाधीश्वर भगवान्‌ श्री अनन्ताचायि जी महाराज नङ्गे शिर ओर नङ्गे पेरों से धीरे धीरे चछकर मुम्बई नगरी को अपने चरणर्ो से पवित्र कर रहे थे और मुम्बई की मोहमयी भूमि चरणरजों से अपने को कृतरुत्य कर रही थी ।. श्रीचरणी के साथ की विद्वन्मण्डछी श्रीसम्पदाय के प्रबन्धपाठ मौर स्तो का पार कर रदीथी




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