रक्षाबन्धन | Rakshabandhan

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Rakshabandhan by एस पी उपाध्याय - S. P. Upadhyay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हस्तिनापुर लौटकर उसने पाण्डवो के विनाश का झायोजन किया ।५ युधि- ण्ठिर को जुदा खेलने का बड़ा शौक था । दुर्योधन ने उन्हे जृञ्रा खेलने का निमन्त्रण देकर हस्तिनापूर बुलवाया श्रौर छलपुवंक उनका सव कुषं जौत लिया । युधिष्ठिर हारते हो गये-यहाँ तक कि वे श्रपने चारों भाइयों श्रौर द्रौपदी को भी हार गये। दुर्योधन ने भरी सभा में द्रौपदी का श्रपमान किया, उसका कैश पकड़कर घसीटवाया न्नौर उसे वस्त्रहीन करवाना चाहा । भगवान ने उसकी लाज रखी । जुरा आगे इस रतं पर वडा किं इस वार हारने पर पाण्डवोंको वारह्‌ वर्ष का वनवास श्रौर एक वषं का ्रज्ञातवास भोगना पड़गा। युधिष्ठिर इस वार भी हार गये भर श्रपना वचन पूरा करने के लिए पाण्डवों को वन जाना पड़ा। काम्यके वन को उन्होंने अपना निवास-स्थान वनाया । श्रीकृष्ण को पत्ता लगा तो वे पाण्डवों से मिलने गये । उन दिनों कृष्ण भी इसी वन में योगाभ्यास करते हुए वानप्रस्थ की तैयारी कर रहे थे । एक-एक करके पाण्डवों के वनवास के वारह वषं पुरे हुए श्नौर उनके श्रज्ञातवास का भी एक वर्ष किसी तरह वीत गया । तव वे राजा विराट की नगरी विराट नगर में प्रकट हुए। श्रीकृष्ण भी वहाँ श्राये हुए थे । उनकी उपस्थिति में विराट-नरेदा की पुत्री उत्तरा का विवाह श्रभिमन्यु से हो गया । फिर कौरवों के पास यह संदेग भेजा गया कि वे पांडवों का श्राघा राज उन्हें लौटा दें । दुर्योधन ने कहा--यह नहीं हो सकता; पाण्डव समय से पहले ही प्रकट हो गये हैं । भीष्म पितामह ने दुर्योधन को बहुत समझाया पर उसकी मति ठिकाने नहीं ्रायी । पाण्डव श्रपना राज्य वापस लेने के लिए युद्ध की तैयारी में लग गये । उनके पास श्रपनी सेना तो रह नहीं गयी थी । द्रपद श्रौर विराट ने श्रपनी सेनाएँ उन्हें दे दीं। कृष्ण युद्ध बचाने के उद्देश्य से भ्रन्तिम प्रयत्न करने स्वयं हस्तिनापुर गये । वे विद्र के साथ ठहरे, जहाँ कुन्ती रहती थी । कृष्ण के समभाने का भी दुर्योधन पर कोई श्रसर नहीं हुमा । उसका दुराब्रह बाढ़ पर था । उसने कहा--विना युद्ध के सुई की नोक बरावर भी प्रृथ्वी पाण्डवों को नहीं दूंगा । निरादा होकर कृप्ण लौट झ्राये । कुरुक्षेत्र के मंदान में दोनों भ्रोर की सेनाएँ एकत्र हुई । १८ दिन तक घमासान युद्ध हुभा । इसे ही महाभारत का युद्ध कहते हैं । इस युद्ध में पाण्डवों की जीत हुई श्रौर कौरवों का सर्वनादा हो गया । पाण्डवों के पक्ष में न्याय था, उसके साथ ही उनके पक्ष में श्रीकृष्ण भी थे । युद्ध के मेदान में जव दोनों भ्रोर नाई-बन्दुग्रो को देखकर घ्रजुन मोहसे ग्रसित हो गये थे श्र युद्ध का इरादा छोड़कर रथ के पीछे के भाग में जा वेठ थे तव श्रीकृष्ण जुन के रथ के सारथी थे । उन्होंन ही उस समय श्रजुन को कत्तंव्य का मार्ग था । उसका सार यह है कि मनुष्य को फल का विचार कयि विना त्रपना क््तव्य-पालन करना चाहिए। दारीर का मोह व्यर्थ है, मुख्य चीज तो श्रात्मा है 21 ५ त दे ॥ 9 2 ^) र




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