जानकीहरणम | Janakiharanam

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १५) रत्न मिले जिन्हें मैंने अपने रत्न-कोश मे रख लिये और उन्हे इतनी बार पदा कि उनमे अधिकाद मुझे कण्ठस्थ हो गये । इस बात को वरसो बीत गये। परन्तु मुंह मे खून लग चुका था । यह तो स्पष्ट था कि ऐंसी बात नहीं है यह महाकाव्य दस सर्गों मे ही समाप्त हो गया हो । कुमारदास (महाकाव्य वे' प्रणेता) ने यद्यपि दसवें सर्ग॑ वे अन्तिम इठोक में वह दिया दि सीता को पृष्पक विमान पर बिठो कर, रावण उन्हे लेबर भाग गया अर्थात्‌ जानकी का हरण कर लिया । इत्युवत्वादाय.. रक्ष पतिरवनिसुत्तामुत्छुतो मानजाले-- दिचय ब्योसाम्युराशि घनपतमरयास्फालगुब्जद्वनोमिमू । पोतेनेव प्रकम्यध्वनिनिवहमसौ यिभ्रता पुष्पकेण स्पूनल्सौतेन यात्रामनुपहतजनेव्यापिनीमाललम्ये ।--१०, ९०। परन्तु इतना वहा कवि इतने ही म सन्तुष्ट हो जाय, यह सम्भव न था । भ मनुसन्धान मौर अन्वेषण मे लगा रहा । कु समय वाद मुझे पता चला दि सन्‌ १८९१ में बिदालकार कालेज, पे लिययोड, वेलनिया, वे प्रिन्सपल श्री के० धर्माराम रयविर ने इस महाकाव्य पे १-१४ सगं मौर शवे सगं के है से २२ इलोवों वा शब्द प्रतिशब्द अनुवादं सहित छिहल लिपि म क्म्पादन किया था । बौर, वह सत्य समुच्चय प्रेस, पेणियगाड, कोठम्बो, मौोन, से प्रकाशित हुआ था॥ तदनन्तर उसवे भाघार पर जयपुर शिक्षा विमाग वै अध्यक्ष,प० हरिदास शास्त्री ने, इम महा- काव्य का नागस किपि मे सकखन किया । परन्तु पुस्तक छपने के पूर्व ही उनवा देहान्त हौ गया । सन्‌ १८९३ मे सस्टरत काठेज, जयपुर, रे अध्यक्ष ने इसे वल्व्ते से प्रकाशित विया। मारत वे लिये यह बहुत वी देन थी। इस प्रवार यह सुन्दर महा काव्य मारनीय बिद्वाना एव छात्रा वें लिये सुलभ हो गया । परन्तु एव दूसरी समस्या उठ खड़ी हुईं । प० हरिदास शास्त्री द्वारा सम्पादित जानफीहरण के प्रहे सं मे केवर रर एड़ोक तो थे ही, उसके वाद थोडा सा स्थान छोड वर निम्न लिखित श्छोकं दै कृत इति मातुलद्वितययत्नसानाथ्यतो महायमसुरद्विषो स्यरचपन्‌ महां कवि । कुमा रपस्चारकः पफतहादंसिदि सुपी शरुतो जमति जानकीहरणकाम्यमेतनमहुत्‌ ॥१॥ इति सिहलक्वेरतिशयभूतस्य शरुमारदासस्य कृतौ जानकीहरणे महाकास्ये रामामिपेको नाम पञ्चविश्षतितेम ।1 उपयुक्त दोक धर्माराम कै सिहकीय सन्त म है । मन्य दृस्तलिलित पुलका भजो वादम्‌ मिली, नहीं है। विद्वान्‌ ठोग इसी निप्कर्ष पर पहुंचे कि यहू इलोक कुमारदास का नही है, बल्कि अय विसी ने सुमी-सुनाई बातो के आधार पर वाद मे जाई दिया । जआनकोहरणे महाकाष्ये रामाभिपेको नाम पञ्चदिगतिनम सर्वं “ ने एक दूसरी गुत्यी डाल दी । ग्या इस मद़ाकान्य में २५ सर्गे हूँ ?




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