पुनर्जन्म और क्रमविकास भाग - 13 | Punarjanm Aur Kramavikash Bhag - 13
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
12 MB
कुल पष्ठ :
363
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)पुनर्जन्म 2
भला आदमी कण्टकी चक्कीमे पीसा जाता है मौर दुष्ट व्यक्तिः जयपच्रके ह्रेभरे वृक्षकी
तरह फलता फूलता है ओौर जव उसका अन्त आता है तो उसे बुरी तरह काटकर फेक
नहीं दिया जाता । किन्तु यह तो असह्य है । यह् क्रूर असंगति है, ईश्वरकी ुद्धमत्ता
ओौर न्यायङीलतापर आक्षेप है, लगभग इस बातका प्रमाण है कि ईश्वर हैं नहीं; हमें
इसका उपचार करना ही होगा । और यदि ईकवर नहीं हैं तो हमारे लिये सदाचारका
कोई और विधान होना ही चाहिये ।
कितना सुखकर हौ यदि हम भले आदमीकी पहचान ओौर उसके भलेपनका माप
भी इसके द्वारा कर सके कि उसे अपने पेटमें डालनेके लिये कितना घी मिलता दै ओर
वैकमे वह॒ कितने खनखनाते रूपये जमा कर सकता है ओर उसे कौन-कौनसे विभिन्न
सौभाग्य प्राप्त हैं,--कारण, क्यां परमेदवरको कड़ा और सम्माननीय लेखाकार नहीं
होना चाहिए? हाँ, और यह भी कितना सुखकर होगा यदि हम दुष्टको सारे लुकाव-
छिपावसे वाहर निकालकर उसपर अँगुली उठा सकें और चीख सकें, “रे दुष्ट व्यक्ति !
तु यदि बुरा न होता तो ईइवर द्वारा या, कमसे कम, शुभ द्वारा शासित जगत्में इस
भाँति चिथड़ोंमें, भूखा, अभागा, शोकग्रस्त, मनुष्योंके वीच आदरसे वंचित क्यो रहता ?
हा, तेरी दृष्टता प्रमाणित हौ गयी है, कारण, तू चियडोमें है । ईर्वरका न्याय स्थापित
हो गया है ।' सौभाग्यसे परम प्रज्ञा मनुष्यके वचकानेपनकी अपेक्षा अधिक वुद्धिमान्
ओर श्रेष्ठतर है, अत: ऐसा होना असम्भव है । परन्तु हम एक वातसे सान्त्वना ले
सकते है। ऐसा लगता है कि यदि भले आदमीको पर्याप्त सौभाग्य, घी भौर रूपये
नहीं मिले हैं, तो इसका कारण यह है कि वह यथार्थमें वहुत दुष्ट व्यक्ति है जो
अपने अपराधोंके बदले कष्ट पा. रहा है,---परन्तु वह अपने गत जीवनमें ही दुष्ट
था जो अपनी मांके पेटमें अकस्मात् परिवर्तित हो गया; और यदि वह सामने आता
दुष्ट फल-फूल रहा है और जगतुको गौरवसे रौंद रहा है तो यह उसके भलेपनके कारण
है, एक विगत्त जीवनके भलेपनके कारण, उस समयका वह सन्त वादमें विलकुल वदलकर,
--कया पुण्यकी कालिक निःसारताके कारण ही ? --पाप-सम्प्रदायमें आ गया है ।
तो अब सब कुछकी व्याख्या हो गयी, हर चीजका औचित्य प्रमाणित हो गया। हम
अपने पापोंके लिये दूसरे धरीरमें कष्ट पाते हैं, हम अपने इस शरीरके पुण्योंके लिये
अन्य दारीरमें पुरस्कृत होंगे; और इसी भाँति अनन्त काल-चलता रहेगा । कोई आध्चर्य
नहीं कि दार्शनिकोंको यह घन्वा जेंचा नहीं और उन्होने पाप और पुण्य दोनोंसे छुटकारा
. पानेके लिये, यहाँ तक कि हमारे सर्वोच्च शुभके रूपमें, यह प्रस्ताव रखा कि इतने विस्मय-
कारी रूपसे शासित जगत्मेंसे किसी भाँति वाहर निकल भागा जाय |
यह स्पष्ट हैं कि यह व्यवस्था प्राचीन आध्यात्मिक-भौतिक रिश्वत और घमकीका,
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