साम्प्रदायिकता एवं साम्प्रदायिक दंगे | Sampradayikata Avam Sampradayik Dange

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Sampradayikata Avam Sampradayik Dange by गीतेश शर्मा - Gitesh Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(१)- हिन्द जौर मुस्लिम नौजवान एक साथ खाना खाने लग । अत तो आ ही गये । (अछूत मुसलमानो के लिए भी अषटुत थे) । (२)--हिन्दू, सिख झटके का गोश्त लाते और मुसलमान हलाल का मोश्त लाते, दोनीं एक साथ पकता और सब नौजवान खाते । (३)--ऐसी यगोप्ठिया संगठित की जाती रही जिनमे हिन्दू सदस्य अपने धरम की चीड़-फाड़ करता और मुसलमान अपने धर्म कीो। इसी प्रकार की एक आत्मसमाछोचना की सभा में एक मुसलमान इस्लाम की कमियों पर भाषण दे रहा था तो श्रोताओं मे से एक मुसलमान छुरा लेकर खड़ा हो गया । उसे पकड़ कर समझाया गया कि जब हिन्दू अपने धर्म की कमियों पर बोला तो तुम चुप ये और अब . , .इस पर वह वोला कि यदि कोई हिम्दू इस्लाम की बुराई करता, तो मैं उस पर उत्तेजित न होता, पर एक मुसलमान इस्लाम का नुवस निकाले यह मैं सह नही सकता । अब खुमेनी (एक हद तक क्रातिकारी जहा तक कि उसने शाह को मिकाल।) और जिया इस्लाम की व्याख्या करके जगहसाई कर रहे है । मुसलमानों का यह दुर्भाग्य रहा कि उनमे राममोहन ऐसे सुधारक पैदा नही हुए जिन्होने वेद को एक मात्र प्रमाण मानने से इनकार किया । दयानन्द ने यह काम नई व्याख्या करके किया । पर आत्मसमालोचना और चीज है, निन्‍्दा और चीज एक का उदेश्य है मानसिक उल्नयन, दूसरे का उद्देश्य हैं विघटन । क्रातिकारी इस वात को नहीं मानते कि सभी धर्मों की सारी बातें ठीक है, पर गलती का यह बोघ अपने अन्दर से आना चाहिए। एक ऋतिकारी इस विचार से परिचालित है कि धर्म एक समाज मे पैदा हुआ, इसलिए उस समाज के लिए सम्भव है वह एक श्रेष्ठ विचारधारा के रूप मे उस समय आया हो, पर बाद को जबकि वह शोपको के हाथों की कठपुतली बन जाता है, या पुरोहित-मुल्ला उसका इस्तेमाल अपने लाभ के लिए करते हूं, तो वह प्रतिक्रियावादी हो जाता है। सम्भव है चातु्ेण्य कभी श्रम- विभाजन मात्र रहा हो, पर अब वह समाज के गले में बंधा हुआ भारी पत्थर मात्र है। भारत मे हिन्दू शादियों पर कोई सीमा नहीं थी । मेरे बचपन तक बंगाली कुलीन ब्राह्मण कम से कम पचास शादियां करता था ताकि वह साल में हर सचुर का हर हफ्ते मेहमान रह सके । मैं समझता हू कि यह प्रथा कभी किसी अर्थे मे प्रयोजनीय या वैध नही थी । यह महज वंगागी ब्राह्मणो कौ वदमाशौ धौ । इसके विपरीत इस्लाम मे जो चार शादियों की सीमा बांध दी गयी, बह अपने समय मे प्रगति थी, क्योकि कुरेशी में प्रचलित अनग्रिनत हरम, उस হনব के मुकाबले चार को संख्या एक ठछलाग थी ॥ पर जाज वह निरा जुल्म है क्योकि स्तियो को मौत देना उनके साय सृतम दै । मुसलमानों म तलाक साम्प्रदायिकता एवं साम्प्रदायिक दंग / १३




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