जैन - सिद्धान्त - भास्कर | Jain-siddhant-bhaskar

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Jain-siddhant-bhaskar  by हीरालाल जैन - Heeralal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रिस्णि २] जैनधर्म वा महत्त्व ७४ সন্ভবি-অমু ঘক লবন समष्टि (5४७८) दै, जिसरी भ्रव्येक घटना छदूट नियमो के গ্ন্তুলাহ होती है] इन नियमो म को$ वादरी (जदेतर) शक्ति इलततेप नदीं क्र सकती । इंइर को सषा मानने का श्रयं श्रतति फी खण्डता रैर खतत्रता (^(०प्०प्ड) में अविश्वास करना है। भ्रकृनति-सबधी इस रदस्य को जैन घम्म ने मानव-चिन्तन की इतनी आरमिक श्रवा में सममः भिया यद्‌ प्य हे! मास्तवष का यह्‌ दुभौग्य ह कि सैनधमै दारा जड जगत्‌ की इस प्रफार निरपेक्षता धोषित किये जाने पर भी यहाँ वैज्ञानिक अन्देषणु का उटय नहा हुआ। इसका मुण्य पारण यदी माटम पडता है कि यहाँ के सयश्रेष्ठ मलिष्क मोक्ष की सोज्ञ में जगे रहे, उनमें प्राकृतिक रहस्यों या पना लगाकर जड शक्तियों पर शासन करने की आक्राइज्षा मथधी। हिन्दू दशन की माँति जैनधम ने मो मोक्त म विश्यास प्रतिपादित फिया, और चूकि भोक्त का श्रै शरीर अपया जड़ जगन्‌ क सम्परस से छूटना था, इसलिए इन निचारकों का जड सम्माधी अन्वेपणों में जी लगना फ्ठिन था। यही बारण है रे जहाँ ज्ैनधम के श्रुति विरोध ने भालकी तै प्रगति को प्रमावित सिया, हौ হলঈ গলীহনহবাহ ने मारतोय देन पर विशेष प्रमातर नषा टाना । इसक प्रिपरीन जैनल्शन के घोर द्व॑तयाद ने आत्मा और अनात्मा के पीच षी सादषो पअमधिर चौडे और गहने रप में प्रद्शित करत मारतीय मस्तिष्क फो प्ररति से तटस्थ रसने में स्यायता ढा।




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